Thursday, December 30, 2010

सच यही है, झूठ इसमें कुछ नहीं है

ये मेरे अक्षत अधर तेरे लिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी
झील हैं तेरे नयन जलते दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

तू अगर गीतों में मेरे प्रेम-स्वर पहचान ले
तू अगर मेरी हंसी का लक्ष्य खुद को जान ले
अर्घ्य में एकादशी के नाम मेरा ले अगर
तू हृदय के बंध का सम्बन्ध यूँ ही मान ले
दोष तेरा ही है इसमें सुन , शुभे

पल कोई मैंने  तेरी खातिर जिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

सांझ की पिछली किरण से नेह था, मैं मानता
साड़ियाँ छत पर सुखाती  थी तुझे मैं जानता
बस यूँ ही दो-इक  दफा हिलते अधर खिलते नयन
दिख गए होंगे कभी इतना ही मैं पहचानता
हर किसी पहचान को अब प्रेम तो कहते नहीं

प्रात मैंने रात जग अनगिन किये हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

एक  कोई लेके मुझको जी रहा है सांस में
एक  कोई नाम मेरी उम्र भर की प्यास में
दिन गए कई साल बीते जब शरद की एक सुबह
लिख उठा था नाम कोई और मेरे पास में
सच यही है , झूठ इसमें कुछ नहीं है

पुण्य सब संकल्प तुझको कर दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी.


Thursday, December 23, 2010

दो कदम तेरी तरफ मैं फिर चलूँ


प्रिय आज मैंने फिर जलाया सांध्य-दीपक
आज मेरा मन हुआ है फिर जलूं
अधिकार सब निःशेष तुझ पर हो चुके पर
चाहता हूँ एक दफा मन फिर छलूं

     फागुनी वाताश  में बिखरी हुई मधुगंध जैसे
     याद बनकर बस गयी है मौन मन के पोर में
     बीतते पतझड़ में डाली से विलग पत्ते सरीखा
     चाहता  तन बंध के  रहना पीत आँचल-कोर में

गो पाँव मेरे थक चुके पर शेष चाहत
दो कदम तेरी तरफ मैं फिर चलूँ

     रूप की आराधना की साध पूरी हो चुकी पर
     स्नेह के सम्बन्ध बंधने की ललक बाकी रही
     देवता भी, दीप भी हैं देव-मंदिर-गर्भगृह में
     अंजुरी-जल अर्घ्य कर दे किन्तु वह श्रद्धा नहीं है

भेंट दूं सर्वस्व दीपक की सदाशयता को मैं
और घुप अंधियारे सरीखा फिर गलूं .

Friday, December 17, 2010

अकेले में कुछ यूँ ही....

एक मधुगंध बींध जाती है पोर-पोर
भोर की उजास भर कसकता है मन
कानों में जब घोल जाती है मधुर ध्वनि
पायल की एक कोई अल्हड छनन
     यादों की तनी-तनी चादर पर सलवट-सी
     छोड़ चली जाती है अक्सर पुरवाई
     दबी-छिपी बातों को खोल-खोल देती है
     ऊबी-ऊबी थकी-थकी बोझिल तन्हाई
कुशा के कटीले वन चुभते हैं देर तलक
भीग-भीग आते हैं पागल नयन
     पेड़ों से पत्तों के टूट-टूट जाने की
    टीस ज्यों हवाओं में, ऐसी चुभन
    राहों में धूल भरे पांवों की कदमताल
    मंजिल को पाने के झूठे जतन
निशा के अँधेरे में खिलते हैं झूठ-मूठ
आस के नशीले और छलना सुमन
    समय छोड़ जाता है चिह्न कई हर ओर
    और आंक जाता है अपने चरण
    रीत-रीत जाती है चाम की मशक किन्तु
    बार-बार पानी का करती वरण
खंड-खंड जीवन का योग है सिफ़र और
गिने-चुने उपलब्ध केवल चयन.

Monday, December 13, 2010

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं
यह ज़मीन की आकाश छूने  की ज़द्दोजहद भी नहीं
किसी अहंकार का निर्लज्ज वैभव-प्रदर्शन भी नहीं
यह नहीं है हवा की किसी ऊपरी परत में सांस लेने की कोशिश
या फिर धरती की गलीज़ बजबजाहट से दूर होने का ख्याल .

ऐसा मानना निहायत गलत होगा --
यह दलाल-पथ के हुनर का नमूना है
या हमारी जेब से रिसती दुअन्नी का नतीजा है
न यह काल के गाल पर पड़ा डिम्पल है
और न ही मजाक है दौलत के सहारे किसी मोहब्बत का

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं
मेरे मित्र , यह 'धूमिल' के आधी सदी पुराने प्रश्न का ''कौन''  है
आपको क्या लगता है , मेरे देश की संसद यों ही मौन है !!


Monday, November 29, 2010

ओबामा रोज-रोज थोड़े ही आता है

तो बात तय हो गयी है--
खतरनाक है सपने देखना भूखे पेट
खायी-अघाई दुनिया में.
जल-जंगल -ज़मीन कोई शर्त नहीं हैं
कोई शर्त नहीं हैं बोली-पहचान-पहनावा
जीते जाने की सभ्य होकर .
बाज़ार घर नहीं हो सकता
मुनाफे का गणित यही कहता है
घर बाज़ार में बदले यह सम्भावना है
प्रबंधन-क्षमता के विकास की
बेटा पल्टू, नाच देख, डबलरोटी खा, घर जा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.

यह बात भी तय हो गयी है
रोने और रोने में अंतर होता है
अपनी-परायी दुनिया में
आंसुओं का स्वाद मायने नहीं रखता
आँखों का रंग देखा जाना चाहिए
जिंदगी आदत होनी चाहिए, मर्ज़ी नहीं
ब्रांड वैल्यू के लिए ज़रूरी है यह
बेटा टिल्ठू , और झुक जा, ठीक से कोर्निश बजा, मत लजा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.

अब, जबकि तय होने की सभी चीज़ें तय कर ली गयी हैं
अगर तम्हारी भूख का आकार तय नहीं है
अगर तुम्हारे घावों की संख्या तय नहीं है
अगर तुम्हारी  मौत का तरीका तय नहीं है
तो इसलिए  सिर्फ इसलिए
कि इनसे मुनाफे का हिसाब अभी ज़ारी है
कि इनसे उनके सभ्य होने के तरीके में कोई खास फर्क नहीं पड़ता
और अभी तय करने की बारी उनकी है.
बेटा लल्टू, दंडवत कर, पसर जा, मुस्कुरा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.

 


Wednesday, November 24, 2010

उपलब्धि

मैं समय के अनंत पथ पर
पड़ा हुआ था
अड़ा हुआ था
अपार दिक का एक कोना छेंककर.
आंधियां मैंने सहीं
दम कोटि तूफानों ने तोड़े
वज्र छाती पर मेरी
मेघ रीते कोटि मुझपर
घाम में जलता रहा मैं
चन्द्रमा की रजत किरणों ने
सुलाया औ जगाया
क्षण रहा मैं युग हुआ फिर
युग बदलते कई दिखे,
मैं नहीं कहता--
नहीं मैं टूटता-जुड़ता रहा,
पर आज तूने , आज मुझ पर
हथोडियों से चोट मारी
छेनियों से छील डाला
तोड़ डाला रूप मेरा
गढ़ दिया है आज मुझको
प्रेमिका की मूर्ति में
पा नहीं जिसको सका तू
कोशिशें कर उम्र भर.

देखते हैं आँख भर सब
स्वर प्रशंसा में डुबोते--
'कल्पना साकार है'
'यह कालजेता कृति अनोखी'
'कला का अद्भुत नमूना'
'गीत प्रस्तर  में लिखा'
'न भूतो न भविष्यति'
--गर्व से माथा ताना
अनुभूति प्रखर अहम् की !
पर कलाकार ! यह सौन्दर्य साकार
यह प्रतिभा का चमत्कार
सब तेरा है ?
मात्र तेरा ही ?
तूने मुझको देख लिया, पहचान लिया
आकार दिया, साकार किया
क्या मात्र इसी से सब कुछ तू ?
और युगों से तिल-तिल जलकर
बरखा-गर्मी-सर्दी सहकर
तूफानों की ठोकर खाकर
बचा रहा मैं रहा सहेजे
सपने अपने मन के
अपनी सब संभावनाएं
क्या इनका कुछ मोल नहीं ?

पर कलाकार ! तू क्या समझेगा !
तेरे कानों को भाती है
वाह-वाह की भाषा
तेरी आँखों में तिरती है केवल एक अभिलाषा--
उपलब्धि !

तेरा मैं मुझको ले डूबा
युग-युग का तप नष्ट हुआ
मैं आज तुझे उपलब्ध हुआ.



Saturday, November 20, 2010

गद्य गीत

शरद की गुनगुनी धूप और ग्रीष्म की पुरवा-से लगते हो तुम.
महसूस तो करता हूँ तुम्हें, सम्पूर्ण शक्ति लगाकर भी छू नहीं पाता .
सम्पूर्ण समर्पण कर भी देख लिया , एकाकार न हो सके हम.
यह लुका-छिपी का खेल कब तक चलेगा ?
टक बांधे खड़े हैं हम और तुम आवाज़ लगाकर कभी इधर से तो कभी उधर से, छिप जाते हो.
मेरे गीत, यह छंदों का बंधन इतना कड़ा क्यों है !

********************************************

सुनो, मेरी तस्वीर अब भी बेजान है.
दे सकोगी एक मुट्ठी भर मुस्कान उधार  ?
एक मुट्ठी आकाश मेरे पास है, एक तुम मिला दो.
क्या हम दोनों के लिए इतना काफी न होगा !

*********************************************

रिक्तता से पूर्ण आँचल में सँभालने को तुमने स्मृतियाँ दीं , यही क्या कम है.
प्यासा तो था पहले भी पर जल से अनभिज्ञ .
जलपात्र दिखाकर प्यास का बोध तो तुमने ही कराया.
मेरे सागर ,  जल तुम्हारा था तुम ले गए.
हमारे पास प्यास ही सही अपनी तो है.
पराये मेघों का मातम करें या सूखे होंठों के लिए ओस तलाशें, तुम्हीं कहो.

************************************************

एक बार हाथ बढाकर छू लूं तुम्हें , मन कहता है.
जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा.
तुम पारस हो , इसमें तनिक संदेह नहीं.
डरता हूँ , मैं ही लौह न हुआ तो ?

Tuesday, November 16, 2010

UPSC 1998 : असफलता का गीत

रह गया है हाथ खाली अब चलो घर को चलें
कह रहा है मन सवाली अब चलो घर को चलें
        थक गयी पांवों की हिम्मत
        खो गयी मंजिल की हसरत
        ज़िन्दगी कल थी रवानी
        आज केवल एक आदत
ज़िन्दगी से जीतने की हमने खायी थी कसम
हर कसम है तोड़ डाली अब चलो घर को चलें
         हर गली सपना बिखेरा
         बो दिया हर सू सवेरा
         क्या पाता था लक्ष्य ऐसे
         छोड़ देगा साथ मेरा
किसकी-किसकी आस की हों अर्थियां जाने सजीं
और अपनी काँध खाली अब चलो घर को चलें.

Monday, November 8, 2010

अंतिम पत्र : विदा, मनमीत !

उम्र की इस सांध्य-वेला में मुझे आवाज़ देकर
चाहती हो क्यों भला तुम बेवज़ह बदनाम होना
अब न वो शोला रहा है धूम भी बाकी नहीं है
हर नया झोंका हवा का ले गया कुछ छीनकर
और फिर वैसे भी अपने खण्डहर सम्बन्ध में
ढूंढना कोई खज़ाना मात्र कोरा भ्रम ही है
भग्न तुम हो भग्न मैं हूँ बस यही एक सत्य है तो
क्यों किसी सम्पूर्ण की चाहत हमें भटकाए फिर
कर लिया स्वीकार मैंने चिर अधूरापन, सुनो
क्या तुम्हें लगता है अब भी रेत में जल पा सकोगी
रख लिए एकादशी के व्रत अनेकों, बस करो
अब शाम को तुलसी के आगे और मत रखना दिया
अब नहीं उजले पखेरू की धवल पाँखों में मुझको
दीखतीं पल भर न जाने क्यों तुम्हारी उँगलियाँ
अब किसी के हाथ की तकदीर वाली रेख में
नाम अपना देखने की लालसा उठती नहीं है
अब किसी आषाढ़  के बादल से मेरी दोस्ती
नाम कोई ख़त तुम्हारे रोज लिखवाती नहीं है
अब न ये पुरवाइयां मजबूर करतीं गुनगुनाऊं
गीत जो मैंने लिखे थे मौन रातों जागकर
अब कभी कोई अचानक नाम जब लेता तुम्हारा
बन्द आँखों सोचता हूँ लग रहा है सुना हुआ
अब किताबों के मुड़े पन्ने न मुझको बांधते हैं
अब न आती है हंसी किस्से पुराने यादकर
चाहती हो लौट आऊं दूर लेकिन आ गया हूँ
वेदना के लोक अनगिन डूबकर कुछ लांघकर
ठूंठ है इस ठूंठ को सम्बन्ध का मत नाम दो
फूल खुशियों के उगेंगे और मत पालो भरम
झुक रहा है शीश पर उपलब्धियों का आसमान
उठ खड़ी हो जाओ तुमको आज पाना है अनंत
मुट्ठियाँ बांधो कि तुमको बांधनी है रौशनी
और करना है प्रकाशित धूममय संसार को.

Monday, November 1, 2010

माँ स्वेटर बुन रही है

ऊन में उलझी सलाई
डोलती संग-संग कलाई
बुन रही है स्नेह-पूरित
छांह ममता की .

              ठण्ड कुछ चुभने लगी है
              देह पर उगने लगी है
              धूप की सीली छुवन अब
              अनमनी लगने लगी है

 शीत ने जब कंपकंपाया
माँ की आँखों से छिपाया
दुःख सहेगी थक न जाये
बांह ममता की .

                बुन रही है सुख सुनहरे
                भूत के सब दंश गहरे
                काढती है फूल-पत्ते
                मुस्कराहट से भरे

छान दी है कल्पना
आशीष की ज्यों अल्पना
हर सलाई बढ़ रही है
चाह ममता की.

                   बुन रही  है ज्ञान सारा
                   गुन रही अपना सितारा
                   बांधती फंदे बनाकर
                   भाग्यसर का नीर खारा

बुन रही है गर्म स्वेटर
शीत से खुद काँपकर
पा सका है कौन आखिर
थाह ममता की.....  .



Tuesday, October 26, 2010

पंडित दुखन्ती प्रसाद मिसिर

एक बार फिर
पंडित दुखन्ती प्रसाद मिसिर
चौन्हिया गए हैं
नियॉन लाईट की रौशनी में
चौकी पर चन्दन रगड़ते हैं
आप-से-आप बडबडाते हैं- झगड़ते हैं--
आग लगे ज़माने को
खाने को कुल सात अनाज
तेईस साबुन नहाने को
हे भगवान, धरम नहीं रहेगा
पुण्य, परताप , मरम नहीं रहेगा
कहीं एम एन सी है, कहीं टी एन सी है
 सब फारेन की कम्पनी हैं
न कजरी न चैता बस पाप , रैप , सिम्फनी है.

रामनरैना का बेटा
बडके से छोटा
इंग्लिश गाना पर कमर मटकाता है
जैसे मिर्गी का मरीज छपटियाता है
पहले दिन जब टांग लकडियाकर कमर हिलाया
लगा अब गिरा अब ढिमलाया
मिसिर जी अपना सब काम छोड़े
चमरौंधा लेकर दौड़े
वह समझा मारेंगे
पीपलवाला भूत झारेंगे
सो सर पर पैर रखकर भागा
शोरगुल से रामनरैना जागा
बोला-' काका क्या करते हैं
बच्चों के मुंह लगते हैं
यही उम्र है खेलने-खाने की
नाचने-कूदने-मौज उड़ाने की
अरे, नाचना भी एक कला है
गो आपके लिए बला है
नाचता है नाचने दीजिए
अपनी किस्मत का लेखा बांचने दीजिए
क्या पता माइकल जैक्सन बन जाये
दुनिया भर का अटरैक्शन बन जाये
न भी बना तो गम नहीं
पत्नी की उंगली पर नाचने का हुनर होगा
यह भी कुछ कम नहीं'
मिसिर जी ने ठोंके करम
न हाँ, न हूँ , न खुशी, न गम
समझ नहीं पाए
गीता पढ़ें या रामायण बांचें
या टेप बजाकर वह भी नाचें.

पंडित दुखन्ती प्रसाद मिसिर
पीड़ा से, क्रोध से सिर हिलाते हैं
अनामिका से चन्दन मिलाते हैं
भीतर बहुत कुछ धुंधुआ रहा है
कुछ होंठों पर झाग बनता है
कुछ शब्दों में कढा आ रहा है--
'पुरखों का पेशा है निभा रहे हैं
लोग समझते हैं जजमानी है
तर माल उडा रहे हैं
कौन रोज कथा कहवाता है
दसवें-पन्द्रहवें सतनारायण को
दस-पांच रुपया चढ जाता है
शादी-ब्याह का मौसम
कौन सा साल भर रहता है
जग्य-भागवत का सोता भी
कहाँ साल भर बहता है
सात परानी का खर्चा है
आना-जाना, मर-मरजाद , तीज-त्यौहार
ऊपर से कर्जा है
दान में मिली होगी
दो बीघे खेती है
बिना खाद पानी के
दो मन अनाज भी नहीं देती है.

ब्राह्मण का संस्कार, ब्राह्मण की मर्यादा
यह पाठ बचपन से पढ़े हैं
हम ब्राह्मण हैं ब्रह्मा के मुख से कढे हैं
वेद-पुराण-उपनिषद हमारी थाती हैं
ज्ञान के दीपक में हम ही बाती हैं
हम सभ्यता को रास्ता दिखाए
आदमी को इंसान बनाये
समाज को नियम दिए
राग-व्रत-योग-संयम दिए
बचपन से कूट-कूट कर भरा है
क्या खोटा है-क्या खरा है
समझ नहीं आता गलत कौन है
सब वेद-पुराण मौन हैं
हर पेशा की उन्नति के लिए
लोन है, सरकारी योजना है
नए युग का दंड
खाली हमीं लोगों को भोगना है ?
 अच्छा हो सरकार कानून बना दे--
कोई भगवान नहीं है
कोई धरम नहीं रहेगा
पुरोहिताई आजीविका है
यह भरम तो नहीं रहेगा
भगवान की दलाली से
लाला की दलाली अच्छी है
कम-से-कम दो वक्त की रोटी तो मिलती है.'

मिसिर जी अभी और धुंधुआते
अगर राम लुटावन यादव न आ जाते
राम लुटावन बोले-
बाबा पालागी, तनिक पत्रा खोलिए
हमारे पोता हुआ है
उसका ग्रह- नछत्तर तौलिए--
घरी भर रात गयी होगी
अंजोरिया अभी उगी नहीं थी.

मिसिर जी चन्दन-टीका भूल गए
आस-हिंडोले झूल गए--
चार पैसे का काम हुआ
माँ  की दवाई का इंतजाम हुआ.







Tuesday, October 19, 2010

आज बेचैन है कोई

-- रेत का एक कण
सीप के अंतर में अटका
टटका पीड़ा का एक ज्वार
किये है आप्लावित सम्पूर्ण अस्तित्व .

-- रेत का एक कण
सूरज की किरणों में चमका
ठमका श्वान ऋचाओं में
लीलता देवताओं को .

-- रेत  का एक कण 
गदराई हथेली पर चिपका
लपका मुख की ओर
रुक गया समय
पा लिया कुछ नया.

-- रेत का एक कण
कसकता है अन्तर्तम में
आज बेचैन है कोई
कविता के जन्म लेने-सी 
मूक बेचैनी.

Saturday, October 9, 2010

किसका इंतज़ार है ?

कुछ प्रश्न होते ही इसलिए हैं कि उनका कोई जवाब न दिया जाए
मैं भी एक प्रश्न हूँ
खुद से ही टकराता हूँ , खुद को झिंझोड़ता हूँ टूटने की हद तक
फिर कसक कर रह जाता हूँ, मन में पड़ी दरारों को गिनते हुए
जवाब बन जाने की कोशिश में.
'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना'-- ग़ालिब ने कहा था.
पर जहाँ कोई हद ही न हो, वहां ? उम्र भर बीमार बन फिरते ही रहना है ?


दीप सबने जलाये थे किसी को याद कर
एक-एककर रख दिया था फिर कमल के पात पर
दूर तक बहते गए थे झिलमिलाते चाँद-से
मन सभी का ले गए थे बातियों में पूरकर
एक दीप , बस एक रह गया था तीर पर , चुपचाप जलता निर्निमेष.
सबने देखा वह मेरा था--
आखिर लौट कर घर भी तो जाना था अँधेरी रात में !
अड़हुल फूले हैं देवी की जिह्वा-से , नवरात्र है ना !
एक मैंने भी छूकर धीरे से ले दिया तुम्हारा नाम
शाम और सघन हो आई चुपचाप अमर्ष से.


दूब के माथे पर उतरी हैं शबनम की सतरंगी टोलियाँ
दिन चढ़े तक रुकेंगी फिर एक-एककर लौट जाएँगी दुबारा आने के लिए
मैं रोज देखता हूँ विदा होती शबनम की सतरंगी टोलियाँ
रोज रखता है दिन चढ़े कोई मेरे कंधे पर हाथ-- किसका इंतज़ार है?
तुम तो जानती ही हो, कुछ प्रश्न होते ही इसलिए हैं कि उनका कोई जवाब न दिया जाये.



Thursday, October 7, 2010

मुझे मालूम है मैं हूँ

कहीं कुछ अर्थ  गढ़ता हूँ
कहीं कुछ शब्द लिखता हूँ
कभी कुछ भाव बुनता हूँ
कभी कुछ रूप रचता हूँ
मुझे लगता है मैं हूँ.
सुबह को स्वर्ण लिखता हूँ
रजत-सी रात कहता  हूँ
सुबह की धुंध है मेरी
सघन घन की चमक में हूँ
गिनूँ टूटे हुए पत्ते
सहेजूँ वृक्ष की फुनगी
कोई उड़ता हुआ पाखी
छिपाए पंख में मुझको
जगत में जो भी कुछ दीखे
सभी कुछ मैं सभी मुझमें .

किसी को छू दिया झुककर
किसी का हाल भर पूछा
किसी के सिर पर मेरा हाथ
किसी को मार दी ठोकर
किसी की अंगुलियाँ मेरी
किसी के रात-दिन मेरे
नहीं  छूटा नहीं मुझसे
कहीं कुछ भी नहीं छूटा--
जली लाशों के हों कव्वे
गले क़दमों की बैसाखी
रुदन हो मृत्यु का या फिर
सजे सेहरे या शहनाई
खुली जीवन की हों आँखें
बंधी हों मन की या गांठें
नचाता अँगुलियों पर जो
अवस्थित दूर दुनिया से
उसे भी छू लिया बढ़कर
उसे भी जी लिया मैंने .

नहीं कुछ भी नहीं छूटा
कहीं छूटा नहीं मुझसे
सर्ग की आदि वेला में
नहीं था जब कहीं कुछ भी
तिमिर था घन तिमिर सघन
मैं तब भी था सुनो यूँ ही
कि जिस शून्य से सब कुछ
प्रकट आया समस्त प्रपंच
और फिर हो गए अगणित
जगत-तारक-मनस-जीवन
प्रलय की सृष्टि , सृष्टि का लय
समय का चक्र चलता है
धुरी हूँ मैं , मैं धरता हूँ
ह्रदय में आदि कारण शून्य
सभी कुछ मुझसे उपजा है
सभी का लय मुझ ही  में है
मुझे मालूम है मैं हूँ
सुनो, मैं कवि हूँ. 













Friday, October 1, 2010

भोलाराम रिक्शावान

फूलते शहर भूल जाते हैं चेहरे
संकराती  सड़कें चीखती हैं रिक्शों के स्वर में
और साथ-साथ चीखता है भोलाराम--
'बाबूजी बचके'  'किनारे भईया'
'देखके भाई'  'बढ़ाके राजा' .

तीन पहिये रिक्शे के
चौथा भोलाराम रिक्शावान
घूमते हैं  लयबद्ध, चक्राकार
उखड़ती  हैं, घिसती हैं टायर की परतें
धीरे-धीरे जंग खाता है चेन का इस्पात
फूलती हैं पांव की नसें
धौंकनी-से फूलते हैं फेफड़े
इंच-इंच गलता है भोलाराम.

छोटा-सा गाँव एक
बिलासपुर-पूर्णिया कहीं भी
माटी का घर , छप्पर
दीवार पर हैं गेरू से बने चित्र
बच्चों-से दो छोटे-छोटे बच्चे
बुझे हुए हुक्के की राख-सा बाप
कोलिअरी में नौकर था जवानी में
बीवी- सी बीवी
महुए का हलवा बनाती है अच्छा
काढ लेती है तकिये पर फूल
काटती है बाबू साहब  के खेतों पर धान
छींट की साडी पहनकर.
दूर गाँव में
नात भी हैं कुछ, भाई-बिरादर भी
जुटते हैं छठे-छमासे कार-परोज में
अकेला नहीं है भोलाराम
रिक्शे के पहियों-से पहिये
कई हैं जिंदगी में उसकी
घूमते हैं, घुमाते हैं, चलाते हैं
चलती है गाड़ी सहारे जिनके.

कागजों में कागज़-- मनीऑर्डर फॉर्म
बखूबी पहचानता है भोलाराम
अंगूठा नहीं लगाता दस्तखत करता है
अक्सर गड़बड़ कर जाता है
भालोराम या भालारोम लिख जाता है
वर्ष में बारह मनीऑर्डर बेनागा
कभी हज़ार  पूरा, कभी कम कभी कुछ ज्यादा
मेहनत की कमाई बचाता है
एक टाइम खाता है
हफ्ते में एकाध दिन पौआ  तो चलता है.

भोलाराम उसूल का पक्का है
बेकार खिच-खिच पसंद नहीं
किराया पहले तय कर चलता है
शहर के इस छोर से उस छोर
नदी इस पार से नदी उस ओर
सुबह हो या कि शाम
ख़ास दिन हो या कि आम
सर्दी-बरखा-घाम
चलता है भोलाराम.
आदमी दिल का अच्छा है
सिद्धांत का सच्चा है
उसकी पार्टी -- कमनिस्ट पार्टी
कांग्रेस --बेकार पार्टी,
भाजपा --लबार पार्टी
नारा जानता है
हरवंश बाबू को नेता मानता है--
जिमदार आदमी हैं,
परजा का खियाल रखते हैं
पंद्रह अगस्त को खद्दर पहनते हैं
एक मई को हड़ताल रखते हैं.
भोलाराम जानता है
सर्वहारा के दुश्मनों को पहचानता है
समय बदल रहा है
बदलाव का दौर चल रहा है
संघर्ष होता है, लाल फूल खिलता है
अधिकार छीनने से मिलता है
बिना मांगे तो किराया भी नहीं देते .

भोलाराम ढोता है किसिम-किसिम की सवारियां
पुरुष,  बच्चे , बूढ़े , नारियां , क्वांरियां
भारी भी हलकी भी
बोझिल भी कडकी भी
कुछ साहबनुमा होते हैं
कुछ  चुपचाप नहीं बैठते
अपना दुखड़ा रोते हैं
ब्याह को ढोते जोड़े 
रास्ते भर झगड़ते हैं
बिनब्याहे प्रेमी-प्रेमिका
हाथ छोड़ते-पकड़ते हैं
भोलाराम सब जानता है
सवारी का मिज़ाज पहचानता है
सिनेमाहाल की सवारी गुनगुनाती है
स्टेशन की जल्दी मचाती है
श्मशान की सवारी मातमी सूरत
मंदिर की सवारी बेज़रूरत
होस्पिटल की सवारी कुनमुनाती है
नयी सवारी चकपकाती  है
बच्चा उछलके बैठता है
बूढ़ा संभलके बैठता है
पुराने सेठ पसरके बैठते हैं
नए-नए ज़रा अकडके बैठते हैं
दफ्तर के बाबू पकडके बैठते हैं
भोलाराम सवारी की नस-नस पहचानता है
पैसे कौन कैसे देगा यह भी जानता है
उतरने के पहले
पुराना सेठ पैसे निकाल लेता है
बाबू जेब  में हाथ डाल लेता है
लड़कियां कनखियों से नज़र फेंकती  हैं
उम्रदराज़ महिलाएं पर्स देखती हैं
शहरी नवधा खटाक  से पर्स खोलता है
बूढ़ा गंवार लांग टटोलता है
बाबू क्लास पैसा देने में झिक-झिक करता है
शराबी हर बार दिक करता है.

भोलाराम शहर की गली-गली जानता है
हर चौराहा, नुक्कड़, बाज़ार पहचानता  है--
कहाँ-कहाँ चाट खानेवालियाँ जुटती हैं
किस सिनेमा पर नयी-नवेलियाँ जुटती हैं
मम्मीनुमा महिलाएं
चहचहाती आधुनिकाएं
सर्दी में स्वेटर
गर्मी में शर्ट और नेकर
अक्सर नक़द देकर
कहाँ तोलती  हैं मोलती हैं  खरीदती हैं
हंसती हैं खीझती हैं रीझती हैं;
कौन डाक्टर पुरुषों का है कौन महिलाओं का
कौन हड्डी का है कौन फोड़े का,  घावों का;
भोलाराम जानता है
 कौन दफ्तर काम बेचता है
किस गली के किस नुक्कड़ का
कौन सा पनवाड़ी जाम बेचता है;
शहर की बदनाम बस्ती
वेश्याएं महँगी और सस्ती
कहाँ मिलती हैं
कैसे मुरझाती हैं, खिलती हैं
कैसे पटाती  हैं, पटती हैं
पुलिसवालों से पिटती  हैं;
भोलाराम को सब पाता है
कहाँ पंजाब है कहाँ कलकता है
कौन सी ट्रेन कब आएगी
दिल्ली, अम्बाला, पटना कहाँ ले जायेगी ;
कोढियों-भिखारियों की बस्ती कहाँ है
सोने-चांदी की चीज़ सस्ती कहाँ है
कौन सी बिल्डिंग कब खड़ी हुई
कोतवाली की नीम कब बड़ी हुई
-- भोलाराम शहर के गाइड-सा
शब्दों की स्लाइड -सा
सब कुछ बताता है
शहर से परिचय कराता है.

भोलाराम आदमी नहीं सपना है
एक शाश्वत सफ़र है
दर्द है, हंसी है, तड़पना है
शहर की नसों में खून है
मरजाद है, जीने का जुनून है;
घिसते हैं टायरों के साथ-साथ
वर्ष-दर-वर्ष ज़िन्दगी के
भोलाराम का जीवन ख़त्म नहीं होता
बर्स्ट हो जाता है एक दिन चलते-चलते
और शहर इस्पाती रिम-सा
नया भोलाराम चढ़ा लेता है.


Sunday, September 26, 2010

एक चिड़िया की कहानी

चिड़िया ने बनाया घोंसला
चुन-चुनकर तिनका-तिनका
रेशे, डोरे, चमकीली कत्तरें
चोंच-चोंच भर बुने सपने.

मौसम बदला
गंभीर हो गयी चिड़िया
आँखों की बढ़ गयी चमक
अब देर तलक बाहर-बाहर
कर दिया बन्द रहना चिड़िया ने .
पहले अंडे , फिर अण्डों से बच्चे
चूं-चूं चें-चें , लाल-गुलाबी 
उड़-उडकर बाहर जाती
चोंच-चोंच भर लाती चिड़िया
जो कुछ भी ला पाती थी.

बच्चे होने लगे बड़े
खड़े पांव पर होते-होते  
कौतूहल-सी चंचल ऑंखें 
धीरे-धीरे पांखें आयीं
इधर फुदकना ,उधर फुदकना
किन्तु घोंसले की सीमा में.
चिड़िया मन में हर्षित होती
देख फुदकना सपनों का.
खुलती पांखें, मुंदती पांखें
मुडती और सिकुड़ती पांखें
पांखों ने मजबूती पाई
ले बच्चों को दूर गयीं
दूर क्षितिज से भी आगे
पार दृष्टि की सीमाओं के .

चिड़िया अब भी चुप-चुप- अक्सर
बैठी रहती देर-देर तक
सूनी आँखों तकती रहती
राह जिधर से गए थे बच्चे
चिड़िया तब लगती है मुझको
बिलकुल मेरी  माँ के जैसी.



Wednesday, September 22, 2010

एक और लड़की जल गयी है


कवि जी, कविताएँ लिखो तुम .

प्रेम के सब चित्र सुंदर
खूब उकेरे शब्द की बाजीगरी से
भाव चुन-चुन कर सजाए इस तरह
ज्यों चीज हो यह और दुनिया की किसी
फूल-पत्ते-पेड़-खिड़की सब रँगा रोमानियत में
छत से लटकी सांझ भी छोड़ी नहीं
छोड़ी नहीं कहीं कोई कसर
सिद्ध करने में अनश्वर प्रेम को.

तुमने गाए गीत
प्रीति को महिमामंडित किया
मूर्तियों में भी तराशीं प्रेम की संभावनाएं 
उद्भावना की गीत-गोविन्द-रास की
बंधनों से मुक्ति की दी कल्पना
पीर कहकर कष्ट को नाज़ुकी बख्शी
न जाने किस तरह तुमने सुना हवाओं का गान
बोलना देखा भला कैसे निरभ्र आकाश का
पेंच-ओ-ख़म  सुलझाए जुल्फों के
फारमूले से भला किस अलजेबरा के --
पूछती है मृत्यु-शय्या पर पड़ी एक लड़की
अपने मृत्यु-पूर्व बयान में--
कह रहे थे सब मुझे जब
और क्या करती भला मैं ;
गाँव-पुर-देहात-खाप सबकी सह लेती मगर मैं
बाप-भाई-माँ-बहन भी शक करें थे
और क्या करती भला मैं .

कवि जी , कविताएँ लिखो तुम, तुमको क्या
एक और लड़की जल गयी है
प्रेम-ताप से नहीं मिट्टी के तेल से
थोडा-मोड़ा नहीं पूरे सौ प्रतिशत
बी ० एच ० टी ० पर यही लिखा है डाक्टर  ने
अनगिन फफोले तन के ऊपर दीखते हैं
दीखती है देह सारी जली हुई
उबले आलू के छिलके-सी छिलती है चमड़ी
भौंह-पलक-बाल सब झुलसे हुए हैं
मन के फफोले क्यों न कोई देख पाता
देख पाता  क्यों न कोई दाह मन का .

प्रेम मन का , देह पर शंका तमाम
सिद्ध करने को अनघता प्रेम की
क्यों जलानी पड़ती है देह--
पूछती है हॉस्पिटल के बेड पर लेटी हुई लड़की
अपने मृत्यु-पूर्व बयान में.

तुमको क्या, तुम कविताएँ लिखो ,कवि जी !



 





Friday, September 17, 2010

मैं उदास हूँ तो हुआ करूँ

जिसे चाहता था मिला नहीं
जिसे पा लिया उसे क्या करूँ
मैं उदास हूँ इसी बात पर
जियूं दर्द या कि हँसा करूँ .

जिसे प्यार से कभी आंख में
मैंने स्वप्न कह के बसा लिया
उसी शाम का भला किस तरह
किसी और से मैं बयां करूँ .

ये जो दर्द है ये अजीज है
जो ये रात है ये सवाल है
यूँ ही चाहता हूँ कि टूटकर
तुझे भूलने की दुआ करूँ .

जिन्हें पढ़ लिया वही गीत हैं
जो  लिखे गए वही स्वप्न हैं
 जो टपक गए मेरी आंख से
तेरे उन खतों का मैं क्या करूँ.

कभी याद की किसी डाल से
जो उलझ गयी थीं शरारतें
उन्हें बारिशों ने भिगो दिया
मैं उदास हूँ तो हुआ करूँ.

Wednesday, September 15, 2010

सुन लो संसार के प्लेटो-अरस्तू

आज नहीं सदियों से
फूटते रहे हैं ज्योति-पुंज
फैलती रही है ज्ञान-रश्मि मृत्यु-लोक में
चेतना अतीत निज करने  सन्धान
काल-गति के संग पांव-पांव
डगर-डगर घूमती रही है अविराम .

झाँक उर-अंतर में पाने को परम सत
अंतस की ऑंखें धुंधलाई हैं बार-बार 
भीतर से बाहर फिर बाहर से भीतर
मिल जाये कुछ उत्तर
बस इसी एक प्रश्न का--
मैं कौन हूँ  ?

थके हैं मन तन क्षरते गए हैं
तर्कों के स्वर घुटे  प्राणहीन मौन हुए 
सारे सिद्धांत , शब्द , पन्ने किताबों के
चर्चे विद्वानों के , ज्ञान की आयोजनाएं
गए तो हैं सभी किन्तु  सिर्फ एक-दो ही पग .
शब्द कठिन अर्थ भरे , वाक्य सभी छोटे- बड़े
रचते हैं लोक एक भय का , रहस्य का
खींचते हैं रेखाएं धरती- आकाश तक
पाने को ओर-छोर अपना ही एक बार .

 जान लिया मैंने--  यह एक ने उद्घोष किया   
 ज्ञानी है , ज्ञानी है-- और कई स्वर मिले
सिद्ध करो -- कहकर यह ज्ञानी एक और हुआ
और एक , और एक , एक-एक फिर कई हुए
कहने के ढंग अलग
रहने के रंग अलग
खींच लिया घेरा और मान लिया सिद्ध हुए .
अनुयायी भेड़ बने चलते हैं साथ-साथ
जिसके संग जितने हैं
वह सत है उतने अंश
सत का यह मानदंड दिया सभी ज्ञानों ने.

जो तुमने जाना था वह सत तुम्हारा था
सुन लो संसार के प्लेटो -अरस्तू ,
जिसको मैं जानूंगा वह होगा  सत मेरा
मैं ही तो जानूंगा आखिर मैं कौन हूँ !
उस पल तुम थे , वह पल तुम थे
इस पल मैं हूँ , यह पल मैं हूँ
और दो पलों के बीच में अनंत है.

Monday, September 13, 2010

थकी-थकी निगाह

थकी-थकी निगाह ने बता दिया है ये हमें
कि देखते रहे हो तुम स्वप्न कोई रात भर
देहरी पर दीप रख मुड़ के चल दिया कोई
और संग ले गया मन भी अपने बांधकर .

बन्द मुट्ठियों से कल
फिसल गयी किरन कोई
हवा बहा के ले गयी
धुला परागकण कोई

अटक गए हो बस उसी हवा के तुम ख्याल में 
नयन-जड़ी ज्यों मुद्रिका अनामिका की गाँठ पर .

दिन चढ़ा तो धुल गयी
लालिमा अंजोर की
हो गयी विलीन भी
गंध मंद भोर की

दिन चढ़े की धूप मन में रख गयी अकेलापन
रखा ज्यों रिक्त देव-गृह में दीपदान मांजकर . 

Monday, August 23, 2010

राखियों की डोर- सी

राखियों  की डोर- सी पावन हैं  बहनें
 जो कलाई पर बँधा करती हैं  शुभ आशीष -सी ।
 गोद रखतीं  , पालती हैं
 पितृ बनकर , मात बनकर
 और चुभती भी कभी हैं
 डाँट बनकर , बात बनकर
जो खुली रहती हैं  हरदम
 स्नेह की ऐसी गठरियाँ
 थाम लेती हैं  दुखों  में
 मित्रता का हाथ बनकर
 पावन ऋचाएं  मन्त्र मनभावन हैं  बहनें
 जो दिशाओं  में  बसा करती हैं  शुभ आशीष -सी ।

Tuesday, August 10, 2010

बरसाती दोहे

काले बादल आ गए , पानी का घट साथ
जाने किसने क्या कहा, गीली हो गयी रात.

डूबी क्यारी धान की, पानी बढ़ा अपार
हंसिया बैठा सोचता , कैसे कटे कुआर .

धरती ने कल कर दिया, सूरज से परिहास
गुस्से में वह रूठकर , ले बैठा संन्यास .

हर पनघट से कह गयी , पुरवा यह सन्देश
धूप बिचारी जा रही , कुछ दिन को परदेश .

धानी चूनर दे गयी , धरती को बरसात
बादल भी दिल खोलकर , बरसा सारी रात.

संबंधों की डोर में , बंधा है सब संसार
बादल आया पाहुना , पपीहा करे पुकार .

वक़्त-वक़्त की बात है, अजब वक़्त की चाल
नदिया से मिलने चला , सूखा तुलसी ताल.

आदर्शों के देश में ,  संघर्षों की बात
चंदा की अठखेलियाँ ,  पानी भरी परात .

 

Saturday, August 7, 2010

अचानक यूँ ही

डायरी का पृष्ठ पलटा
और तुम्हारा नाम देखा
जो लिखा था स्वयं मैंने
स्नेह-भीगे क्षण किसी.

अक्षरों के घूम जाने
झूम-झट कर ठिठक जाने
घुंडियों के घूम-फिरकर
लौट आने , दूर जाने --
चढ़ाईयां चढ़ने-उतरने से जनित
श्रम-बिंदु जैसे
ऋजु किसी या वक्र रेखा के
तने मस्तक-शिखर पर
बिंदु बनकर बैठ जाने --
में  तुम्हीं ऐसा लगा ज्यों
देखती रहतीं मुझे
निर्निमेष अपलक नयन .

एक ही है शब्द लेकिन
तुम कभी हंसती हुई ,
लाज से बोझिल पलक
अश्रु  में भीगी कभी ,
देहरी पर दीप थामे
केश की छाया किये
हँस पड़ी कुछ सोचकर
ज्यों बात करते  आपसे ,
अनामिका  की गाँठ पर
अटकी  अंगूठी जड़े नयन 
रक्ताभ मुख हिलते अधर
ध्वनिहीन शब्द मुखरित हुआ मन .

कल्पनाओं के अनंत
लोक में आलोक बन
एक ध्वनि ले डोलता हूँ
शब्द से आगे जहाँ
अर्थ की संभावनाएं
जुड़ गयीं आकार से .

बढ़ हवा ने एकदम
मूंद दीं पलकें मेरी
चू पड़ा हूँ आँख से मैं
डायरी के पृष्ठ पर
और तुम्हारा नाम मुझमें
घुल रहा है बिंदु-बिंदु.

Saturday, July 31, 2010

बरसात और तुम

तुम्हारे नाम के सारे
किन्हीं पुरुवाइओं के ख़त
रखे हैं मैंने
नयन में सहेजकर
क्षितिज पर झुक आए
मोरपंखी बादलों-से .

तुम्हारे नयनों से ढुलकी
स्वाति की बूँदें
सीपिया हथेलियों में
बटोर ली हैं मैंने
अगले जन्मों के लिए.

सुनो,
पगडंडियों से नीचे उतरते
मत देखना मुडकर इधर
बंध जाओगे मेरी तरह
सन्नाटे के आकर्षण में तुम भी.

जादू है तुम्हारी उँगलियों में
मत छूना  मन
पिछली बरसात में खोया मैं
ढूंढता हूँ आज भी खुद को
यहाँ-वहां तुम्हारे आस-पास . 

Sunday, July 25, 2010

कोई ऐसे भी किसी को चाहता है भला !

 कोई ऐसे भी किसी को चाहता है भला
जैसे तुमने मुझे चाहा एकदम टूटकर
कि दुनिया के सभी रस्मो-रिवाज़ बिखर गए ,
किस्सों कि दुनिया से निकलीं आत्माएं
और हमारे जिस्मों में बेतरह समा गयीं .

दुनिया के बनने के दिन मिटटी का एक लोंदा
टूटकर बंट गया दो हिस्सों में
एक के पास रह गयी दूसरे की कुछ अमानत 
कुछ आड़ी-तिरछी-सी पहचान रह गयी कसकती
जिस्म के उस हिस्से  में दबी
जिसे इन्सान ने   युगों बाद दिल कहा .
दोनों हिस्सों को पता ही न चला
कि कब उस बनानेवाले ने घुमाईं उँगलियाँ
और उन्हें छोड़ दिया समय और आकाश की अनंतता में
एक-दूसरे की तलाश में भटकने के लिए .

दिन बना, दुनिया बनी, धरती और दरिया बने
हरे दरख्तों की छाँव में उतरीं सतरंगी किरणें
चिड़ियों ने सीखे जलतरंगों के गीत
तभी मिट्टी के लोंदे का वह टुकड़ा आ निकला
दरिया के किनारे-किनारे तलाशता अपनी अमानत
वह आड़ी -तिरछी पहचान छिपाए जिस्म के उस हिस्से में
जिसे इंसान ने युगों बाद दिल कहा .
उसी दरख़्त के नीचे सतरंगी किरनों  की खुमारी में सोया
जागा सुनकर जलतरंगों से सीखा चिड़ियों का गीत
और तभी उसने जाना कि वह सपने देख सकता है.

दिन बीते , रातें बीतीं, चिड़ियों ने गा दिए अपने सभी गीत    
 दरख्तों ने पत्ते झाड़े और फिर नए कपड़े पहने
सतरंगी किरणों  ने बनाये बहुत सारे इन्द्रधनुष
वह टुकड़ा फिर भी बेचैन-सा ताकता रहा
उफनते हुए दरिया का पानी दिन और रात
दिन और रात महसूस करता अजानी-सी टीस
कभी-कभी चीख पड़ता जोर से कोई नाम
जिसका अर्थ उस दरिया के सिवा कोई नहीं जानता था.

यूँ ही बहते दरिया को बीते कुछ और बरस
कुछ और ऊँचे हो गए किनारे दरिया के
चिड़ियों कि नयी पीढ़ियाँ भूलने लगीं जलतरंगों से सीखे गीत .
 एक दिन दरख्तों तले उतरी सतरंगी किरणों ने देखा
वह टुकड़ा  बेचैन-सा चीखा फिर वही नाम
और दूर दरिया के उस पार एक परछाईं  हिल पड़ी रेत में
दोनों ओर दरिया के उभरी शाश्वत पहचान की चमक
हिलती परछाईं दौड़कर कूद पड़ी दरिया में
उस टुकड़े ने भी लगायी छलांग और दरिया हँस पड़ा .

इधर कसक बढती रही और उधर गति
पर इनसे भी तेज़ बढ़ती रही दरिया की धार
अनंत समय और आकाश सिमटकर दृष्टि-सीमा तक आ गए
वह आड़ी-तिरछी पहचान सीधी हो स्पष्ट हो गयी
चरम पर पहुँच गयी वह आदिम कसक
जो जिस्म के उस हिस्से में थी जिसे इंसान ने युगों बाद दिल कहा .
एक लम्बी यात्रा की थकन आँखों में उतर आई
साँसें रोके दरख्तों, सतरंगी किरणों और चिड़ियों ने देखा
समय और आकाश का सिमटना नहीं संभाल पाया दरिया
एक उफान आया और आकाश फैल गया
एक लहर गिरी और समय पसर गया
न वह परछाईं रही न वह टुकड़ा .
चिड़ियों  को भूले गीत फिर याद आ  गए
सतरंगी किरणों ने फिर बनाये ढेर सारे इन्द्रधनुष
और दरिया यों ही बहता रहा निरंतर  .

हर दिन हर पल दुहराया जाता यह किस्सा
लगा था कि ठहर जायेगा हमपर- तुमपर
कोई ऐसे भी किसी को चाहता है भला
कि किस्सों की दुनिया से निकलें आत्माएं
और बेतरह समा जाएँ हमारे  जिस्मों में.
चुपचाप  बहता दरिया हँस पड़े यों ही   
और चिड़ियों को याद आ  जाएँ भूले गीत
कहीं ऐसे भी किसी को कोई चाहता है भला.



     
 
 
 

Friday, July 16, 2010

अंत श्रावण का मेघ

ऐसी पहचान तो न थी तुमसे
कि मन उदास हो जाये इतना
निगाह मुड़ ही जाती है उस ओर
दर्द नया है अभी ,
पांव भूल जाते हैं रास्ता
चौराहे पर पहुंचकर
आदत पुरानी है बहुत ,

सपाट , बिलकुल सपाट
डामर की सड़क-सी बात
निकली निकलने-सी
और हवा में कमरे की
भक्क से फैल गयी ,
कहीं कुछ काँपा भीतर
तरल परछाईं -सा
मन था शायद.

सुख होता है , सुख
किसी अपने के सुख से ,
तुमने घर चुना है
और मैंने घर का सपना
तुम उसे सजाओ
मैं इसे संवारूं
सुख दोनों ही ओर होगा
-- ऐसा ही कुछ कहा मैंने
ऐसा ही कुछ सुना तुमने
फिर यह अंत श्रावण का मेघ
आँखों में क्यों उतर आता है बार-बार
चुपचाप भले मानुष-सा.

Tuesday, July 6, 2010

तसला भर आदमी

हिंडन के पानी में परछाईं धूम की
जलती हैं लकड़ियाँ चिटखकर श्मशान में
चिटखता है सब कुछ  बिखरता है शीशे-सा
किरचें चुभती हैं नश्तर-सी यादों की 
ऊदी लकड़ी-सा धुन्धुआता  है मन
आँखों में उठती हैं लपटें दिक्दाह की
बुद्धि में उभरता है एक विकराल शून्य.

लकड़ियों पर लकड़ियाँ आड़ी-टेढ़ी-तिरछी
एक-पर-एक एक निश्चित पैटर्न में
ऐसे ही जैसे कोई जोड़ता है जीवन भर
सुख-दुःख के साधन एहतियात से
स्तूप खड़ा करता है सच के , कुछ झूठ के
रचता है अपना सुगढ़ सुंदर व्यक्तित्व .

लकड़ियों के मध्य एक काया सुकुमार-सी
विस्तार सपनों  का पसरा था कल तक जो
अनंत की सीमाओं तक आज एक शून्य मात्र 
घरोंदे का सुख और कामिनी की कामना
ऋतुओं से जुडी-बंधी देह की छुवन-तपन
शेष नहीं कुछ भी अब वासना-पवित्रता .

बाजू जो कसकर  निचोड़ते थे सुख-दुःख
भरोसा थे संकट के पार ले जाने का
अन्याय के प्रतिकार हेतु उठते उत्साह भर
लोरी के ताल पर झूले-से झूलते
संबल बन ले चलते गुरुजन का वार्धक्य
दुःख जिसपर टिककर पा लेता धीरज
करते थे रचनाएँ कला और संस्कृति की
सभ्यता को देते थे वैशिष्ट्य इतिहास का
क्षमता थी थामने की कलम और तलवार संग
धरती की छाती से जीवन उपजाने की
रेखाओं में आता था भर देना जीवन
स्पंदित कर देना पत्थर की जड़ता को
आज वही निष्पंद बर्फ की शिलाओं-से.

चेहरा जो यूसुफ-नार्सिसस-कंदर्प था
प्रकृति का समेटे था सारा सौंदर्य
भौंहों का तनना मुस्का भर जाना होंठों का
सन्चरित करता जो भावों-विभावों की श्रृंखला
करता रहा जिसकी रखवाली दिठोना 
माँ ने निहारा था रातों को जाग-जाग ,
ऑंखें जो साक्षात् जीवन का चिह्न थीं
खंजन-कमल-मीन रचती थीं उपमान
जीवन छलकता था स्वच्छ नील दर्पण से
बोल-बोल पड़ता था ह्रदय भाव-विह्वल हो
प्रेम की मनुहार भरी बातें प्रतिबिंबित हो
रचती थीं लोक  एक अलोकिक सौंदर्य का,
अनदेखी राहों को मापने का हौसला
दम ढूंढ लेने का नए-नए विश्व कई
ललक लाँघ लेने की पर्वतों की चोटियाँ
ज्ञान का आलोक  भर लेने को मुट्ठी में
पाने को रहस्य सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का
मौन पड़ी मिटटी-सी जिज्ञासा दुर्दमनीय .

ज्वाला सब लील लेती छोडती नहीं है कुछ
प्रज्ञा , स्मृति , बुद्धि , साहस , परिकल्पना
नहीं शेष रहता है कोई अभिज्ञान- चिह्न
  प्यार-सुख-वैभव या उनकी सम्भावना .

युद्धवीर , धर्मवीर , दानवीर श्रेष्ठ सभी
अंतिम गति एक सी, एक सी असमर्थता
लील गयी अग्नि-ज्वाल सुन्दर सुकुमार देह
दूध धुले फूल बचे, और बचा---- तसला भर आदमी!!!  
      

Wednesday, June 30, 2010

एक अनलिखा खत

चाहता हूँ मैं कि तुमको ख़ूबसूरत ख़त लिखूं

     ख़त कि जिसमें मौन भी हो बात भी हो  
     ख़त कि जिसमें चाँद भी हो रात भी हो
    ख़त कि जिसमें शबनमी सौगात भी हो
     ख़त कि जिसमें स्नेह की बरसात भी हो

अनकहे किस्से भी हों कुछ अनछुए पल भी कुछेक
उम्र के इस मोड़ पर एक बचपनी हसरत लिखूं .
चाहता हूँ मैं कि तुमको ख़ूबसूरत ख़त लिखूं.



     रेत के कच्चे घरोंदों-सा सजीला ख़त
    गुलमुहर के फूल-सा कुछ लाल-पीला ख़त
     याद की उतरन में संवरा तंग-ढीला ख़त
     कोर पर आँखों की उभरा मन , पनीला ख़त

इस बरस बरसात में चमके हैं ढेरों इन्द्रधनु
छोर की ख्वाहिश में उलझा मौन मन आहत लिखूं .
चाहता हूँ मैं कि तुमको ख़ूबसूरत ख़त लिखूं



     ख़त कि जैसे अधखिले फूल की एक पाँखुरी
     ख़त कि जैसे जेठ में पुरुवाईओ  की झुरझुरी
     ख़त कि जैसे भोर में बज उठी हो बांसुरी
    ख़त कि जैसे रामगिरि से  आ मिली अलकापुरी

बादलों को दूत भेजा था कभी एक यक्ष ने
ऋतुमती ऋतुओं की अलकें बांध संयम-व्रत लिखूं.
चाहता हूँ मैं कि तुमको ख़ूबसूरत ख़त लिखूं



     ख़त कि जिससे मौन-मंदिर में बजें कुछ घंटियाँ
     ख़त कि जिससे धूममय हों कामना की वेदियाँ
     ख़त कि जिससे गूँज जाएँ गीत-गोविन्द-पंक्तियाँ
     ख़त कि जिससे पा सके कान्ह बिछुड़ी कनुप्रिया

एक लोटा जल सुबह सूरज को एक दिन भेंटकर
नाम इस सम्बन्ध का एकादशी का व्रत लिखूं
चाहता हूँ मैं कि तुमको खूबसूरत ख़त लिखूं .  








Tuesday, June 29, 2010

यक्ष-प्रश्न


बन्द आँखों से पढनी होगी तुम्हें
नए युग की गीता ,
बिना हाथों के तोडना होगा तुम्हें
गान्डीवों  का गर्व
मेरे दोस्त,
बीमार , वृद्ध या मृतक देखकर
नहीं हो जाता हर कोई बुद्ध.
दीवार पर लिखी इबारत
चीखकर  कहती है--
सीखो
अपने होने पर सवाल उठाना ,
तुम्हें मिल जाएगा जवाब
यक्ष-प्रश्नों का
युधिष्ठिर  हुए बिना.   

Thursday, June 24, 2010

पढ़ना-लिखना सीखो , ऐ मेहनत करनेवालो

अटारियों में अटकी रोशनी की किरण
सरकने लगी है
सरकंडे की छाजन के नीचे
काली पट्टियों पर दूधिया रेखाएं बनाने.

खड्डी   खटकाते  हाथ
लिखने लगे हैं
जूठन सहेजती आँखों की भाषा
लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर .

अंगूठे की रेखाओं का
कमला, विमला या रामप्रसाद हो जाना
प्रस्तावना है
एक नए संविधान की ,
धाराओं, अनुच्छेदों की जकड से मुक्त
गुलाबी खम्बों के बाहर भी अस्तित्व है जिसका.

पथरायी अँगुलियों
धुंधलाई आँखों
लिखा-पढ़ा हर अक्षर
घोषणापत्र है
उस नयी सुबह का
जो धूप बाँटने से पहले
कुल, जाति या धर्म नहीं पूछती.  

( दूरदर्शन पर साक्षरता सम्बन्धी एक विज्ञापन देखकर )

Wednesday, June 23, 2010

वही मैं हूँ - वही तुम हो

वही मैं हूँ
वही तुम हो
वही सुनसान सड़कें.

वही सोए हुए पत्ते
वही सीली हवाएं
वही नादान गुलमोहर
वही चुप-सी दिशाएँ
वही आकाश में चंदा
वही तारों की टिम-टिम
वही झींगुर की तानें
वही है ओस भी मद्धिम

 वही मैं हूँ
वही तुम हो
वही सुनसान सड़कें.

वही कुछ फूल-से किस्से
वही कुछ धूप-सी बातें
वही कुछ दीप-से वादे
वही कुछ गंध-सी साधें
वही चुप-चाप संग चलना
वही बेबात का हँसना
वही रुक देखना यूँ ही
वही मनना, मचल जाना

 वही मैं हूँ

वही तुम हो
वही सुनसान सड़कें.

वही किस्से पडोसी के
वही माँ की बीमारी
वही भाई की नादानी
वही अनजान लाचारी
वही इतिहास के चर्चे
वही फ़िल्मी ठहाके
वही संवाद नाटक-से
वही झुकना अदा से


वही मैं हूँ
वही तुम हो
मगर वर्षों की दूरी है

न वो साझा समंदर है
न वो पहले- सी  लहरें हैं
मेरे भी पांव में बंधन
और तुम पर भी तो पहरे हैं
कहीं मैं भी हिचकता हूँ
तो कुछ तुम भी छुपाते हो
न पूरा सच मैं कहता हूँ
न तुम ही सच बताते हो
वही सब कुछ मगर फिर भी
कहीं कुछ रिक्तता-सी है
जुड़े हैं हम बहुत लेकिन
कहीं कुछ भ्रंश बाकी है

न वो मैं हूँ
न वो तुम  हो
वही सुनसान सड़कें .

मेरा 'मैं' मुझे रोके
तुम्हारा 'तुम' तुम्हें बांधे
बहुत मुश्किल है मुक्त होना
खुलें और हो रहें आधे
न ये मंज़ूर है तुमको
न ये मंज़ूर है मुझको
मगर कुछ कम नहीं यह भी
कि हम तुम साथ हैं दोनों .

न वो मैं हूँ
न वो तुम हो
वही सुनसान सड़कें. 














Sunday, June 13, 2010

एक पूरा बरस : अधूरा समझौता

तुमने ठीक ही लिखा है--
न आने पायें उदासी के झोंके ,
फुहारें दर्द की न पड़ें सुबह-शाम,
आँखों में परछाइयाँ बादलों की
थमें केवल, जमें नहीं सावन में .

--- यह सब कुछ  चाहता हूँ  मैं भी
पर दोस्त,
एक  पूरा बरस होता है दो सावनों के बीच
तीन ------सौ------पैंसठ------दिन ,
एक पूरा पतझड़ ,
एक पूरा चिल्ला जाड़ा ,
एक पूरा धुआंसा फागुन ,
एक पूरा उदास वसंत,
एक अ-स्मरणीय शाम
एक अप्रत्याशित खबर
एक अधूरे समझौते की शुरुआत
और  एक पूरे सपने का अंत .

 इस अन्तराल के बाद
अब नहीं आते झोंके उदासी के
दर्द की फुहारें नहीं पड़तीं
नहीं जमतीं बादलों की परछाइयां   
बस अक्सर कसकती है एक पहचान
टीसता है एक परिचय
भर आती हैं ऑंखें
और ख़ाली हो जाता है मन .
        

Saturday, June 12, 2010

दोस्ती देने का नाम है -- तुमने कहा था


स्वप्न पलकों पर तिरा करते थे जो अक्सर ,
कदम थके-थके जो
बहक-बहक जाते थे
मुड़ने के लिए चलते-चलते,
पुरवा पवन वह ओस-भीगी
सिहरा जाती थी सीला मन जो,
रीत गये सभी
कहो तो क्यों !!

सिर पटक-पटक
जाती है बिखर लहर ,
फूट-फूट जाते हैं
इस पहाड़ी नदी के बुल्ले
कुछ देर कुलबुलाकर ,
देर तक पकड़ने की कोशिश
किया करती थीं तुम जिन्हें.

सांझ के पाखी लौटते तो हैं घर
झुण्ड-के-झुण्ड
पंख फडकाते पंक्तिबद्ध ,
पर लय खो-सी गयी लगती है.

पोखरी का जल ,
जिसे चुपचाप  भरते थे
अंजुरी में हर शाम हम-तुम ,
हो गया है गंभीर
कुछ  अधिक ही गंभीर ,
सूरज ढलने के बाद
हिल नहीं पड़ता है अक्सर
किसी  के मुस्कुरा भर देने से .

सर्ग शाकुंतलम के सभी
बांचे थे हमने एक साथ
छाँव में जिसकी ,
अमोला अल्हड वह अमलताश का
झूम नहीं उठता है अक्सर बेबात ही.

पढ़ ली होंगी तुमने कुछ किताबें और
सीख लिए होंगे कुछ और
तीन-पांच के धंधे ,
बढ़ गयी हो चमक आँखों की
नामुमकिन नहीं.
मुमकिन है, मिल गया हो
कन्धा कोई
रो लेने को सभी  दुःख ,
भोगे-अनभोगे यथार्थ के.

फिर भी सच यही है कि
तुमने की थी  दोस्ती मुझसे
और एक शाम यूँ ही
भाग्य-रेखा को मेरी
गोदते हुए दूब  की डंठल से
कह दिया था तुमने --
दोस्ती देने का नाम है.

लिया तो तुमने भी कुछ नहीं ,
मैं रिक्त हूँ
पर यह भी सत्य है .   

Tuesday, June 8, 2010

लील रहा है महानगर

मेरी परिभाषा में शामिल
पीपल , पोखर , धूल गांव की
काली , डीह , कराही - पियरी ,
कजरी , चैता , फाग , बिदेसिया ,
ताल, चिरैया ,पागल पुरवा ,
चौखट , पनघट , घूंघट , गागर,
साँझ ढले की दीया-बाती ,
पांव महावर छम-छम पायल ,
मुरली  , मूसल , जांता-चक्की ,
अक्कड़-बक्कड़,  ओल्हा-पाती,
राधा-मोहन-नन्द-यशोदा
धीरे-धीरे धूमिल होकर
खोते जाते महानगर में.

सबने मिलकर लिखा और मैं
कोशिश करता रहा स्वयं को
पढ़ पाऊं अपनी आँखों से
बिन पनियाये साफ-साफ .

कुछ नयी किताबें , नए विचार
सिद्धांत नए , सब तीन-पांच
विज्ञान, ज्ञान , कला , दर्शन ,
जीवन जीने के विविध ढंग
कुछ पुण्य-पाप , कुछ धर्म-अधर्म
सब राग-विराग , नरक-स्वर्ग
जाले-से उतरे आँखों में
मैं भूल गया वह भाषा , वह लिपि
जिसमें मुझको लिखा गया
जिसमें पला-बढ़ा-पलुहाया
जिससे मेरा कण-कण सिरजा
जिसने गढ़ा 'मुझे' , 'मेरा' , 'मैं'.

मैं , पानी पर पलता मनीप्लांट
अभिमान सभ्यता का पाले
पैरों में संस्कृति की बेडी
तैयार खड़ा बिक जाने को
मल्टीनेशनल - प्रोडक्ट-सा .

तन के , मन के , इस जीवन के
सारे बंधन , सारे क्रन्दन
छंद , ताल , लय और स्पंदन
तुलते एक तुला में केवल ---
किसको कितना लाभ हुआ !!

जैसे कोई वृक्ष कटा , जड़
बची रही गल-सड़ जाने को
ऐसे ही तन बेच दिया , मन
सड़ता जाता पल-प्रतिपल .
अंश-अंश कर
बूँद-बूँद भर
लील रहा है महानगर .
               

Friday, June 4, 2010

और सुनो अनु

मैं अब भी लिखता हूँ
तुम पर कवितायें , अनु
जबकि तुम सुनती हो
नवजात शिशु की सांसें
पति के सीने पर सिर रख.

मैं अब भी ढूंढता हूँ
तुम्हारे लिए उपमाएं ,
गढता हूँ टटके बिम्ब
और बनाता हूँ नए-नए अर्थ
तुम्हारे कहे उन्हीं पुराने शब्दों से .

मैं अब भी मोड़ता हूँ
पन्नों के कोने
बनाता हूँ दूब की पैतियाँ
खींचता हूँ किताबों पर रेखाएं
और पढ़ता हूँ तुम्हारा नाम .

गलत होवोगी तुम
यदि इसे प्रेम समझो
या फिर , प्रेम का नॉस्टेल्जिया.
यह हैंगओवर भी नहीं है
किसी अत्यन्त गहरे अनुभव का.
मित्र कहते हैं बूढ़ा हो रहा हूँ
पर मुझे लगता है, इसी बहाने   जीवित तो हूँ मैं !

Monday, May 31, 2010

सुनो अनु

__________________________________

सुनो अनु!
ऐसा क्यों होता है
तुम अपने लिए चुनती हो दिन
और रात मेरे हिस्से आती है .

एक अलसाई सुबह
तुमने चुना था प्रेम
मैं बेचैन हो उठा.

एक खड़ी दोपहर
तुमने चुना यथार्थ
मैं दिग्भ्रांत हो उठा.

फिर, आज इस ऊदी शाम
तुमने चुना है जीवन
मैं पथरा  रहा हूँ.

सुनो अनु !
यह समर्पण , समझौता या सदाशयता नहीं
चयन का अधिकार है तुम्हारा
जिसे स्वीकार मैं करता हूँ .

Sunday, May 30, 2010

एक प्रेमगीत

देह बांची नित्य मैंने वेदमंत्रों की तरह पर
उपनिषद के ब्रह्म-सी तुम दूर ही होती रहीं 
मैं अर्थ की गहराइयों से शब्द की सीमा तलक
भटका किया हर रोज लेकिन तुम सदा खोती रहीं.
                          देह ने जाना मगर बस देह को
                          संदेह ने जाना मगर संदेह को
                         यूँ तो हथेली भीग आयी नाम भर से
                         किन्तु जाना स्नेह ने ना स्नेह को
उम्र बीती मन से मन को जान पाने की ललक में
साँस , गति, पहचान , कोशिश व्यर्थ सब होती रहीं. 

Thursday, May 27, 2010

औरतों के लिए एक ऋचा, पुरुषों की ओर से

तुमने कब कहा मुझसे
तुमको चाँद चाहिए

तब तो  नहीं, जब
अंजलि में जल ले  मैंने कहा-
कुछ भी मांग लो , मिलेगा .
तब तो तुमने यूँ  ही नचाये
हीरे की कनी-से नैन
पलकें झपकाईं
और मेरे हाथ का जल ले लिया ,
शीश पर चढ़ाया , कहा ---
मैं संकल्प हूँ ,
तुमने किया है ,
कहो, किसको दोगे !

मैंने कहा -- समय को देता हूँ,
मैं तुम्हें समय को देता हूँ .

आज बरसों बाद
समय के पीछे चलते एकाकी
तुम्हें देखता हूँ--
तुम्हारे हाथों में चाँद है
छोटा-सा, नन्हा-सा, रुई के फाये-सा
बंद मुट्ठियों में समय बांधे.

सोचता हूँ
तुमने कब  कहा
तुमको चाँद चाहिए....
..या...शायद ...कहा था
जब मौन ने बोलना नहीं सीखा था
और अलकें अभी संकल्प-जल भीगी हुई थीं ,
तुम देवी हो-- मैंने कहा था ,
तुम शक्ति हो , धरा हो ,
धारा हो करुणा की ,
स्नेह हो, पवित्रता हो--
यह सब मैंने कहा था.
और तब
 हाँ, शायद तभी
तुमने कहा था --
मुझे चाँद चाहिए
मेरा अपना निजी चाँद.

      

Sunday, May 16, 2010

हाशिया

अभी जितना कहा है
और उससे भी कम जितना लिखा है
और छोड़ दिया है
शब्द, वाक्य, अर्थ की पोटलियों में
इधर-उधर
मेज-किताब-अख़बार
सब कहीं भटकने के लिए
उससे कहीं ज्यादा- बहुत ज्यादा
रह गया है
टकने से-
किसी कमीज़ पर बटन बन,
छलकने से-
पवित्र अर्घ्य-सा अंजुरी से,
दहकने से-
भूख या प्यास की तरह
या फिर कसकने से-
हृदय के किसी अज्ञात अतल में.

हाशिया छोटा ही सही
बदल सकता है
पन्ने की इबारत
पूरी-की-पूरी
बिना दावा किये ,
दे सकता है
अर्थहीन को अर्थ
या अनर्थ.

वस्तुतः
जो कुछ भी रह गया है
कहीं कुछ होने से
मेरी ही तरह हाशिये  पर है.

   

Saturday, May 15, 2010

कलफ़ लगी औरतें

----------------------------------------
कलफ लगी साड़ियाँ
सरसराती हैं नफासत से
उठते-बैठते-चलते ;
तुडती-मुडती-सिकुड़ती हैं
मोड़-दर-मोड़
भीतर-बाहर हर ओर .

अक्सर निकाली  जाती हैं
इस्तिरी -बेइस्तिरी  
पार्टियों-मेलों-सम्मेलनों में
रेडीमेड का लेबल लगाकर .

कलफ लगी साड़ियाँ
तकिये के नीचे नहीं तहातीं
पाजामे, गमछे या लुंगी की बगल में
कलफ लगी साड़ियाँ
हैंगर में टंगती हैं
कोट, पैंट , टाई के बराबर
टाईट .... एकदम कड़क .

कलफ लगी साड़ियाँ
अक्सर खुद नहीं जान पातीं
बढती सलवटें
दिन-महीने-साल
जो बनाते हैं उनपर .
वे तलाशती हैं नए हैंगर
नए सिरे से लटकने के लिए
हर बार.... आखिरी बार !

कलफ लगी साड़ियाँ
पोंछा नहीं बनतीं
टूट जाती हैं अक्सर
तार.........तार.......
कलफ टूटते - न टूटते .
 

Sunday, May 9, 2010

लाल सूरज

--------------------------------------

तुम देहरी पर दीप रखो- न रखो
अँधेरा घिरेगा ही
सघन या विरल ,
सपने छीजने लगें तो यही होता है--
रात बांसुरी नहीं बजाती ,
चाँद बच्चे नहीं बहलाता ,
सितारे जंगल में भेज देते हैं
भटके हुए बटोही को
और मूर्तियाँ मुस्कराने लगती हैं
श्रद्धावनत मस्तकों की मूर्खता पर.
आस्था का संकट
चरणामृत बाँटने से नहीं मिटता .

गिरने दो कलश
धूल- धूसरित हों कंगूरे
कालजयी महलों   को पता तो चले
समय के बदल जाने का.

धक्का दो
धराशायी हों वटवृक्ष;
डालियाँ काटो
तने को चीरो
पोर-पोर खंगालो
बाकी न रहे कोई कोना
ढूंढो  एक स्वस्थ बीज
और रोप दो वहीँ;
फिर प्रतीक्षा करो
सपनों के अंकुरित होने की .

सूर्य रक्त वर्ण होता है
रौशनी फूटती है
सूर्य रक्तवर्ण होता है
रात हो जाती है
नया युग चुप-चाप नहीं आता  .
 

Sunday, May 2, 2010

यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे

____________________________
यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे
इसलिए नहीं कि
और मजबूत हो गयी हैं दीवारें
या कि और गहरी हो गयी है इनकी  नींव
बल्कि इसलिए,
मात्र इसलिए कि
बेसुरे बांसों क़ी चरमराहट हकला उठी है,
कामसूत्र क़ी पोथियाँ 
एडम स्मिथ क़ी अलमारियों से निकलकर 
खेत-खलिहानों में फडफडा रही हैं
विभिन्न मुद्राओं में
और कुदालों क़ी प्रतिबद्धता जंग खा गयी है. 

बिल्ली लाल हो या काली 
चालाक हो गयी है,
अब मलाई खाती है
और चूहों का व्यापार  करती है.

दीमक लगे चरखे से खेलते हैं
कुछ खाकी चूहे
और बिल्ली टकटकी बांधे खड़ी  है
होंठ चाटती.
घुनी हुई लाठी एक कोने में पड़ी है .

पथराये रहनुमा सिर ताने शान से 
कव्वे और कबूतर हगाते
चौराहों पर खड़े हैं 
और वह
जिसे तोड़ने हैं मठ और गढ़ 
चरणामृत  पीकर बेहोश पड़ा है. 

इसीलिए कहता हूँ---
यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे.  


Saturday, April 24, 2010

मैं बुद्ध नहीं हूँ

____________________________
मैं बुद्ध नहीं हूँ.
मेरे महाभिनिष्क्रमण और बुद्धत्त्व के  बीच
नहीं किसी सुजाता की खीर
शाक्यों का वैभव
कपिलवस्तु के प्राचीर ;
है तो सिर्फ
यशोधरा की पीर
शुद्धोदन का मोतियाबिंद
मायादेवी का गठिया
राहुल की किताबों का बोझ
और सिद्धार्थ अकेला है.

कोई सारनाथ या बोधगया नहीं
किराये का मकान
टपकती छत
उखड़ते प्लास्टर
कहने को घर
पर
नहीं छोड़ सकता
डोर नहीं तोड़ सकता
महाभिनिष्क्रमण बेमानी है
जब तक एक भी आंख में पानी है .
अश्रुपूरित नयनों के लिए
पनियाये सपनों के लिए
जीना होगा
हर सुकरात के हिस्से का प्याला
पीना होगा. 

Friday, April 16, 2010

देह की दुकानें

--------------------------

दर्द उधार नहीं लेतीं
देह की दुकानें हैं
उसूल पर चलती हैं.

अनुसूया की मर्यादा
द्रोपदी की दृढ़ता और
सीता का सतीत्व
पुते हैं सब
लिपस्टिक की परतों में .

चमकदार झलर-मलर कपड़ों के भीतर
काजल से काले हैं
आगत  के डंक
भूत का भय
और घिनोनापन वर्तमान का.

गहरी रेखाएं गले की
खोह हैं गहरी ,
भूख बिलबिलाती है
बचपन से जहाँ.

नाभि-गह्वर से निकली
रोम-रेखा फैली कुचों तक
सिहरती है अक्सर
शरीर के सिहरने से --
छोटे-छोटे सपने हैं,
नन्हे-नन्हे सुख
कुछ अपने, कुछ अपनों के
तन-तन आते हैं
पूरने की आशा में .

अंग-अंग अपना
जो अपना नहीं भी है
जीता है एक-एक क्षण
दर्द नक़द लेकर .
पोर-पोर टीसता है
इतिहास सभ्यता का ,
पोर-पोर फूटता है
कोढ़ संस्कारों का .

लोथड़े में मांस के
ढूंढता है मांसपिंड
ऐसा कुछ अपरिचित
करता है पास जो
अपने कुछ और पास .

काग़ज़ के टुकड़ों में
मिलता है गोश्त सिर्फ
गोश्त बस गोश्त है.

देह के पार उतरती है देह
देह का तनाव सोखती है देह
मन पांचसाला बच्चे- सा
संभालता है अपनी टॉफियाँ, अपने खिलोने
जो अक्सर
मार खाने के बाद मिलते हैं .

देह की दुकानें
दर्द उधार नहीं लेतीं.
 


   

Friday, April 2, 2010

अलगनी पर टंगी औरतें

जम्फर , फरिया, ब्लाउज संग
सुबह से शाम तक
अलगनी पर टंगी रहती हैं
चिमटियों से दबी
कुछ साड़ियाँ .

गरमाई हवा में फडफडाती हैं
कभी धूप में, कभी छाँव में
सूखती हैं भाप देतीं
कड़क हो जाती हैं.

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
दीखती हैं , देखी  जाती हैं
नज़र-बेनज़र
दबे-छिपे , सरेआम
साल में तीन सौ पैंसठ दिन
दस...बीस...पचास...सत्तर साल
उजाले में, अंधेरे  में
लगातार.

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
अक्सर तहाती हैं चुपचाप
दिसंबर की ठंडाई साँझ-सी
परत-दर-परत;
फिर रख दी जाती हैं
पेटी,अलमारी या बिस्तर के सिरहाने-पैताने
किसी पाजामे,गमछे या लुंगी की बगल में.

कोरेपन से पोंछा बन जाने तक
बरस-दर-बरस गलती हैं
रंग......बेरंग......बदरंग ;
मसकती हैं
इधर,उधर ,चाहे जिधर से;
हुमकती हैं, रीझती  हैं, खीझती हैं
अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
बोलती नहीं हैं खुद से
केवल सुनती हैं दूसरों की आवाज़ .

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
अक्सर फडफडाती हैं
पर अलगनी छोड़कर नहीं जातीं
अपने-आप
टंगी रहती हैं लगातार
दस.....बीस....पचास....सत्तर साल.

(साड़ियों की जगह औरतें पढ़ें)



Sunday, March 21, 2010

मेला

परिंदे उड़ान भरते हैं
आँखों में आसमान भरते हैं
मेले में भीड़ नहीं आती
मेले में मेहमान भरते हैं .

देह की बात

देह की बात हो तो कहे भी कोई
मन की तकलीफ का ज़िक्र क्या कीजिये
सांस एक डोर है फड़फड़ाती हुई
जोर से खींचिए फिर उड़ा दीजिए.

फागुनी गंध-सा टीसता है ये मन
इन कुंवारी हवाओं का स्पर्श कर 
        स्नेह की आखिरी बूँद तक किस तरह 
   कोई ले जाए सम्बन्ध को खींचकर

बांध अनुबंध में दर्द भी प्रेम भी
उम्र ऐसे ही चुप-चुप बिता दीजिए.


                                                    हाथ यों तो उठेंगे कई थामने
लाख कंधे कि सर रख के रो भी सकें
    आंख तक उठ कर आयेंगी कई अंगुलियां
अश्रु-जल में स्वयं को भिगो जो सकें


ये  न छू पायें मन पर पड़ी सलवटें 
देह की देहरी पर टिका दीजिए .

Thursday, March 11, 2010

शिमला: जैसा मैंने देखा

१.सुबह
------

चीड के पेड़ों पर उतरी
अनमनी अलसाई भोर ने
मलते हुए आँखें खोलीं
और एक अजनबी को ताकते देख
कुछ झिझकी , कुछ शरमाई
फिर कोहरे का घूँघट काढ लिया.
ठंड  खाए सूरज ने खंखारा
भोर कुछ और सिमटी .
दो अँगुलियों से घूंघट टार कर
उसने कनखियों से अजनबी को देखा,
अजनबी ने बाहें फैला दीं
दूर तक की घाटियाँ समेट लेने भर
और हलका- सा मुस्कुरा दिया.

समय पहले थमा
कुछ देर जमा
और फिर पिघलकर सुबह बन गया.



२. दोपहर
---------------
सूरज आज छुट्टी पर है.
चंचला घाटियों ने न्यौत दिया एक-दूसरे को 
दिन से बद ली   शर्त
और छिप गयीं जाकर दूर-दूर
हरे दरख्तों के पीछे.
दिन ने कहा-- आउट 
एक घाटी  निकल आई बाहर 
फिर दूसरी , फिर तीसरी
एक-एककर सभी घाटियाँ निकल आयीं बाहर
आउट होकर .
रह गयी एक घाटी 
सबसे छोटी
दुधमुहें बच्चे-सी 
मनुष्यों के जंगल में खोकर.
डांट खाई घाटियाँ
तलाशती रहीं रुआंसी हो 
तमाम दोपहर,
अमर्ष से भर-भर आयीं 
बार-बार.  


३.सांझ  
-----------
रिज की रेलिंगों पर कुहनियाँ टिकाये
ललछौहीं शाम
झांकती रही घाटी में 
देर.... बहुत दे....र तक...
तब तक, जब तक कि 
चिनार सो नहीं गए, 
सड़कें चलीं नहीं गयीं अपने घर
और कुंवारी हवाएं लौट नहीं आयीं
दिन भर खटने के बाद.


४.रात : अमावस की  
-----------
सो गए हैं सब
चिनार और कबूतर
झरने की लोरियां सुनते.
सज चुकी है
सलमे-सितारे जड़ी पोशाक पहन
अभिसारिका घाटी.
रह-रहकर देखती है निरभ्र आकाश--
मुझसे तो कम ही हैं!

गहराई रात और 
टिक गयीं क्षितिज पर आँखें
एकटक...
न निकलना था 
न निकला चाँद .
आहतमना 
पूरितनयना  
एक-एककर तोड़ती रही सितारे 
फेंकती रही आकाश में
सो जाने तक.    
   

        

Sunday, March 7, 2010

अपराध है बेटी होना

एक थी परी
फूल- सी खिली
सजी-सँवरी
बनी-ठनी झूमती फिरी.
कुछ स्वेटर बुने
मोज़े दस्ताने भी
झबले संग सपने--
कुछ जाने, अनजाने भी----
एक बेटी है इस बार बेटा ही होगा.

बेटी से कहती रही--
आएगा भैया छोटा-सा, नन्हा-सा.
छोटे-छोटे  हाथ होंगे, छोटे-छोटे पैर
दीदी कहेगा तुम्हें
ले लेगा सारे खिलोने  तुम्हारे
 छीनकर, प्यार से
तुम भी उसे प्यार करोगी ना!
बच्ची चुपचाप हिला देती सिर
तैर जाते आँखों में
ताई के, मौसी के, मामी के छोटे-छोटे बच्चे
छोटे-छोटे बच्चों के छोटे-छोटे हाथ-पैर
चुन लेती वह भी
एक छोटा-सा नाम.

एक दिन अचानक सब बदल गया.
बेटी है--- पता चल गया.
जिठानी ने जेठ से
ससुर ने सास से
कानाफूंसी की
सबकी राय बनी--
महंगाई बहुत बढ़ गयी है.
फिर एक शाम
एक रात
चुन लिया
जन्म देने - न देने का अधिकार
सुई, सीरिंज , दवा, औजार
और एक सपने का अंत हुआ.

कभी-कभी पूछती है बच्ची--
कब आयेगा छोटू माँ
छोटे-छोटे हाथों से छीनने खिलोने मेरे?
बच्ची तो बच्ची है
समझाए कौन--
सीता-सावित्री के देश में
अपराध है बेटी होना
नहीं तो, कौन किसे देता है मृत्युदंड
 अपनी ख़ुशी के लिए.

   
  

Saturday, March 6, 2010

विदाई की रात

आज तुमने रख लिया
अपना सब सामान
कपडे-लत्ते , रूमाल
जाने को ससुराल.

कल सुबह की ट्रेन और
रात अभी बाकी है
नींद नहीं आँखों में
आंसू से डब-डब
तैरते हैं दिन-महीने-साल.

सुड़कती हो नाक
सोचती हो जानेंगे जुकाम,
जानती नहीं, हज़ार मुंह हैं आंसू के
कह देंगे हाल.

देखती हो निद्रामग्न मिंटू की ओर
धीरे से छू देती हो सिर
पोछती हो आंसू
--स्मृति-जाल .

यह मेज, यह खिड़की
यह अलमारी,यह बेड
यह तकिया, यह चादर
सब छूती हो एक-एक कर
जैसे कह देना चाहती हो-
विदा, मेरे साथियों विदा!

नत सिर बंद आँखें
अँगुलियों में फँसी अंगुलियाँ
भीतर उमड़ता तूफ़ान
सवाल-जवाब, जवाब-सवाल.

छूट रहा सब कुछ जो
बांधा था अब तक
मुट्ठी में कसकर--
छोटी-छोटी खुशियाँ
धुपहले मटमैले सपने
पनियाई यादें
और भी बहुत कुछ जाना-अनजाना.
बेटी हो ना!
बहन हो ना!
यह तो होना ही था एक दिन.

   

कनक चूड़ी

-------------------------------------------
ला दो ना पिया ला दो कनक चूड़ी
मुझे भी पिया ला दो कनक चूड़ी.
 सोना के कानों  में सोने का झुमका
रूपा के पांवों में पायलिया भारी
बन-ठन के फिरती हैं संग की सहेलियां
एक मैं ही चुप-चुप अकेली बिचारी , पिया ला दो  
ला दो ना पिया ला दो कनक चूड़ी.


पुरुवा के चलने पे झूमेंगे गेहूं
पछुवा में झूमेगी धानों की क्यारी
मन सबके झूमेंगे पानी के संग-संग
एक मैं ही गुम-शुम अकेली बिचारी, पिया ला दो
 ला दो ना पिया ला दो कनक चूड़ी.


सासू की खातिर तो गहने  बहुत हैं
ससुरा की खातिर ये दुनिया है सारी
ननदी की खातिर हैं बनिया-बजाजे
पर मेरी खातिर ना कोई उधारी , पिया ला दो
ला दो ना पिया ला दो कनक चूड़ी.

मर-मर के खटता हूँ किसके लिए मैं
किसके लिए रात जगता हूँ सारी 
परदेशी जिनगी तो जिनगी नहीं है  पर 
एक तेरी खातिर ही सहता हूँ प्यारी, तुझे लाऊं 
लाऊं मैं तुझे लाऊं कनक चूड़ी 
गोरी मैं तुझे लाऊं कनक चूड़ी. 
















Sunday, February 28, 2010

अंतिम मुलाक़ात के दिन

----------------------------------
उस अंतिम मुलाक़ात के दिन
बादल छाये  रहे आसमान में
धूप रह-रहकर  उतरी धनखेतों में,
हवा डोलती फिरी उदास-सी
उफन आयी नदी के तीर-तीर,
फूल-फूल उठे कुशा के वन
ऊसर धूसर से दुधिया हुआ.

उस अंतिम मुलाक़ात के दिन
कुछ क्षण लौट-लौट आए
समय की लम्बी दूरियां तय कर,
कुछ शब्द बिखर-बिखर गए
हवा के आघातों से,
कुछ गीत घुमड़ते रहे कंठ में,
कुछ धुनें गूंजी निःशब्द ,
कुछ अर्थ सन्चरित हुए संकेतों से,
कुछ होंठ ढूंढ़ते   रहे शब्द
कुछ शब्द ढूंढ़ते रहे भाव,
आँखों ने तलाशे एकांत कोने
टिक सकें जहाँ सबसे बचकर.

और भी बहुत कुछ हुआ
उस अंतिम मुलाक़ात के दिन.
एक जोड़ी कदम उठे चलने के लिए,
एक जोड़ी हाथ जुड़े नमन की मुद्रा में,
एक जोड़ी आँखों ने देखा दूर सबके पार
और एक रुआंसा मन काँप गया
अंजलि में भरे अर्घ्य-सा.

उस अंतिम मुलाक़ात के दिन
एक लडके ने बिना देखे घुमा लिया चेहरा
एक लड़की  हैरान-सी देखती रही
 उस अंतिम मुलाक़ात के दिन.









  














पछुवा पवन

___________________
बात सुनो पछुवा पवन
       बात सुनो पछुवा पवन
अर्जन के उत्सव में रहने दो शेष तनिक
       रिश्तों की स्नेहिल छुवन.

परदेसी पाती के अक्षर में पाने को
घिरते  हैं अर्थ कई नयनों में बावरे
दोपहरी ग्रीषम की राहों में टक बांधे
बंजारे मन के सब खोले है घाव रे

अंखियों में पड़ आई झाँई की टीस लिखो
        और पढो गीले नयन.
        बात सुनो पछुवा पवन.

पीपल के पत्तों में डोला है सूनापन
पनघट की पाटी पर संझा के पांव पड़े
शहरों ने छीन लिए बेटे जवान सभी
बुढ़िया-से झुके-झुके गुमसुम सब गाँव खड़े

जाओ ना और कोई बेटा तुम छीनकर
लाने का देखो जतन.
बात सुनो पछुवा पवन.



Friday, February 26, 2010

लड़कियाँ

------------------------------------
ये लड़कियाँ पहाड़ की
          ये लड़कियाँ पहाड़ की
ये मन की अपने मन रखें
नयन की बस नयन रखें
हृदय की पीर तीर-सी
करके हर जतन रखें
नदी-सी मनचली,खिलीं
        ज्यों डोलियाँ बहार की.
उगें तो धूप-सी उगें
ढलें तो सांझ-सी ढलें
उमर को गूँथ चोटियों
चलें तो राग-सी चलें
ये झील-सी बंधी-बंधी
           औ मुक्त हैं बयार-सी.
स्वभाव बर्फ-सा कड़ा
जो प्रेम पा पिघल पड़ा
सजें तो ज्यों बनी-ठनी
औ सादगी तो कांगड़ा
ये कवि की प्रेम-कल्पना
          कलम हैं चित्रकार की.   


 

तुम

____________________________
तुम्हें कहकर विदा उस दिन हमारी भर गयी ऑंखें
कहीं भीतर कोई झरना बहाकर झर गयीं ऑंखें
न चाहा था कि तुमको दर्द अपने दिल का दिखलाऊँ
मगर ये हो नहीं पाया खुलासा कर गयीं ऑंखें.

अज़ब सी बेकली है दिल को समझाया नहीं जाता
ज़ुबां पर गीत हैं ढेरों मगर गाया नहीं जाता
न जाने क्या तुम्हारे पास अपना छोड़ आया हूँ
गयीं तुम दूर नज़रों से मगर साया नहीं जाता.

बहुत मजबूर था ये मन नयन के नीर के आगे
कसक, उलझन,परेशानी,हृदय की पीर के आगे
न कोई राह बन पायी जब इनसे पार जाने की
तुम्हारा नाम मैं जपता रहा तस्वीर के आगे.

कभी इकरार करती हो कभी मगरूर होती हो
कभी अपने हृदय के सामने मजबूर होती हो
बहुत बेचैन करता है तुम्हारे प्यार का ये ढंग
हमारे पास रहती हो हमीं से दूर होती हो.

 



कुछ फुटकर

_____________________

करके तिरछे नयन तुमने देखा मुझे
एक अजानी चुभन तुमने देखा मुझे
देह की देहरी से निकल आया कल
सांझ का दीप मन तुमने देखा मुझे.

गंध ने पुष्प की पाँखुरी पर लिखा
होंठ ने बांस की बांसुरी पर लिखा
कल वही गीत तुमसे मिलाकर  नयन
सांस ने देह की देहरी पर लिखा.

मेरी यादों को मन में संवारोगे तुम
बंद आँखों छिपाकर निहारोगे तुम
मैं हथेली की रेखा में बस जाऊंगा
जब मुझे मीत कहकर पुकारोगे तुम.

अर्घ्य-सा अंजुरी में संभाला गया
पुष्प-सा देवता पर उछाला गया
मुझको जलना मिला उम्र भर के लिए
दीप था तम मिटे रोज़ बाला गया.

गीत हमने भी गाये ख़ुशी के लिए
फूल चुन-चुन के लाये ख़ुशी के लिए
और डबडबायी नज़र में पसरते रहे
मुस्कराहट के साये ख़ुशी के लिए.

Thursday, February 25, 2010

होली के दोहे

___________________
फिर फगुनाई धूप ने, छेड़े मन के तार
प्रणय निवेदन कर रहा, बूढ़ा हरसिंगार.

तेरी चूनर रंग गयी, मेरी भी तू रंग
फिर दोनों मिल घोटेंगे, कबिरा वाली भंग.

फिर अलसाई सांझ ने, रोशन किये चिराग
पांवों में फिर बज उठे, कई बैरागी राग.

खेतों-खेतों लग गया, मस्ती का अम्बार
बूढ़ा बरगद छेड़ गयी, पछुवा मंद बयार.

मैना जोगन हो गयी, तोता बना फकीर
शंकर को भाने लगे, कामदेव के तीर.

सरसों पीली हंस पड़ी,जौ ने किया मज़ाक
पिय तेरा घर आएगा , बता गया है काक.

Saturday, February 20, 2010

तनु के लिए

___________________
सबको ढूंढना पड़ता है
स्वयं अपना रास्ता ,
बैसाखियाँ दूर तक साथ नहीं देतीं ;
दूर तक साथ नहीं देते
माता, पिता,भाई या बहन;
हर रिश्ता कुछ दूर चल ठिठक जाता है.
उन्मत्त घोड़ा  कैनवास पर आंकती
चांदनी धोई अंगुलियाँ
कप पकड़ते थरथराती हैं;
थरथराता है यह विश्वास कि
शरीर दूर तक साथ देता है.
दया, सहानुभूति,सांत्वना के जंगल में
एक उदास लड़की
कैनवास पर बिखेरती है रंग
और एक झील बन जाती है
बिलकुल उसकी आँखों- सी नीली.
एक घना कुंतली मेघ
झुक-झुक आता है झील पर.
लड़की हंसती है
और घोड़ा भाग जाता है
कैनवास के बाहर
आखिर Everyone has to find his own way.





दर्द का गीत

___________________________
मैं गीत लिखता हूँ
और दर्द गुनगुनाता हूँ
यह बात अक्सर समझ नहीं आती /
मैं प्रेम करता हूँ
और विश्वास हो जाता हूँ
यह बात अक्सर नज़र नहीं आती /
मैं देह जीता हूँ
और मन ढोता हूँ
यह बात कभी खबर नहीं बनती /
मैं आदमी हूँ
नहीं लिखा किसी किताब में
जानता हूँ फिर भी यह बात
क्योंकि
मैं गुनगुनाता हूँ दर्द
बन जाता हूँ विश्वास
और देह जीकर
मन ढोता हूँ /

Saturday, January 9, 2010

जग बौराया

 जग बौराया
आना जाना भरम
पेट की माया.