Saturday, March 3, 2012

यह वाद की खटिया उठाने का समय है

पड़ गए हैं उतान मुद्रा में
वाद की खटिया बिछाकर
कुछ विकट संभावनाशील प्रबुद्ध विचारक
अटक गयी है वायु
विकारवश
सिद्धांतों की सतत जुगाली से ।

क्या करें किस रीति निकले
फँस गयी है फाँस-सी जो गले में
हूक भरते , खेचरी मुद्रा बनाते
तानते हैं पाँव धनु की तान-सी
फिर डोलते हैं
दोलकों की लय में जैसे ,
क्रोध , फिर दुत्कार, अब दयनीयता है ।

क्या करें,  लाएं कहाँ से सांचे
हो सके जिसमें कि फिट यह आदमी
यह आदमी जो बोलता है सच
यह आदमी जो दर्द को दर्द कहता है
यह आदमी जो भूख में भी मुस्कुराता है
यह आदमी जो बस आदमी है
निपट नितांत बेलाग बस आदमी

क्या करें इसका कि कुछ हम-सा दिखे
क्या करें इसका कि कुछ बदनाम हो
क्या करें इसका कि कुछ कमज़ोर हो
क्या करें इसका कि कुछ संतप्त हो
कि अब तक की सभी सीखी हुई तरकीब से
यह बंध न पाया है किसी सिद्धांत में

यह वाद के खांचे से बाहर है अगर
यह टिप्पणी है हर तरह के वाद पर
यह रिजेक्शन है हरेक उस वाद का
जिसके लिए इन्सान बस औजार है

अतः संभलो , परम प्रबुद्ध विचारक !
जुगाली फिर कभी करना तुम सिद्धांत की
अब दर्द की खातिर दवाई ढूंढ़नी है
ढूँढना है प्रात अँधेरी रात का
यह वाद की खटिया पुरानी हो गयी
यह वाद की खटिया उठाने का समय है ।