Sunday, March 21, 2010

मेला

परिंदे उड़ान भरते हैं
आँखों में आसमान भरते हैं
मेले में भीड़ नहीं आती
मेले में मेहमान भरते हैं .

देह की बात

देह की बात हो तो कहे भी कोई
मन की तकलीफ का ज़िक्र क्या कीजिये
सांस एक डोर है फड़फड़ाती हुई
जोर से खींचिए फिर उड़ा दीजिए.

फागुनी गंध-सा टीसता है ये मन
इन कुंवारी हवाओं का स्पर्श कर 
        स्नेह की आखिरी बूँद तक किस तरह 
   कोई ले जाए सम्बन्ध को खींचकर

बांध अनुबंध में दर्द भी प्रेम भी
उम्र ऐसे ही चुप-चुप बिता दीजिए.


                                                    हाथ यों तो उठेंगे कई थामने
लाख कंधे कि सर रख के रो भी सकें
    आंख तक उठ कर आयेंगी कई अंगुलियां
अश्रु-जल में स्वयं को भिगो जो सकें


ये  न छू पायें मन पर पड़ी सलवटें 
देह की देहरी पर टिका दीजिए .

Thursday, March 11, 2010

शिमला: जैसा मैंने देखा

१.सुबह
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चीड के पेड़ों पर उतरी
अनमनी अलसाई भोर ने
मलते हुए आँखें खोलीं
और एक अजनबी को ताकते देख
कुछ झिझकी , कुछ शरमाई
फिर कोहरे का घूँघट काढ लिया.
ठंड  खाए सूरज ने खंखारा
भोर कुछ और सिमटी .
दो अँगुलियों से घूंघट टार कर
उसने कनखियों से अजनबी को देखा,
अजनबी ने बाहें फैला दीं
दूर तक की घाटियाँ समेट लेने भर
और हलका- सा मुस्कुरा दिया.

समय पहले थमा
कुछ देर जमा
और फिर पिघलकर सुबह बन गया.



२. दोपहर
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सूरज आज छुट्टी पर है.
चंचला घाटियों ने न्यौत दिया एक-दूसरे को 
दिन से बद ली   शर्त
और छिप गयीं जाकर दूर-दूर
हरे दरख्तों के पीछे.
दिन ने कहा-- आउट 
एक घाटी  निकल आई बाहर 
फिर दूसरी , फिर तीसरी
एक-एककर सभी घाटियाँ निकल आयीं बाहर
आउट होकर .
रह गयी एक घाटी 
सबसे छोटी
दुधमुहें बच्चे-सी 
मनुष्यों के जंगल में खोकर.
डांट खाई घाटियाँ
तलाशती रहीं रुआंसी हो 
तमाम दोपहर,
अमर्ष से भर-भर आयीं 
बार-बार.  


३.सांझ  
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रिज की रेलिंगों पर कुहनियाँ टिकाये
ललछौहीं शाम
झांकती रही घाटी में 
देर.... बहुत दे....र तक...
तब तक, जब तक कि 
चिनार सो नहीं गए, 
सड़कें चलीं नहीं गयीं अपने घर
और कुंवारी हवाएं लौट नहीं आयीं
दिन भर खटने के बाद.


४.रात : अमावस की  
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सो गए हैं सब
चिनार और कबूतर
झरने की लोरियां सुनते.
सज चुकी है
सलमे-सितारे जड़ी पोशाक पहन
अभिसारिका घाटी.
रह-रहकर देखती है निरभ्र आकाश--
मुझसे तो कम ही हैं!

गहराई रात और 
टिक गयीं क्षितिज पर आँखें
एकटक...
न निकलना था 
न निकला चाँद .
आहतमना 
पूरितनयना  
एक-एककर तोड़ती रही सितारे 
फेंकती रही आकाश में
सो जाने तक.    
   

        

Sunday, March 7, 2010

अपराध है बेटी होना

एक थी परी
फूल- सी खिली
सजी-सँवरी
बनी-ठनी झूमती फिरी.
कुछ स्वेटर बुने
मोज़े दस्ताने भी
झबले संग सपने--
कुछ जाने, अनजाने भी----
एक बेटी है इस बार बेटा ही होगा.

बेटी से कहती रही--
आएगा भैया छोटा-सा, नन्हा-सा.
छोटे-छोटे  हाथ होंगे, छोटे-छोटे पैर
दीदी कहेगा तुम्हें
ले लेगा सारे खिलोने  तुम्हारे
 छीनकर, प्यार से
तुम भी उसे प्यार करोगी ना!
बच्ची चुपचाप हिला देती सिर
तैर जाते आँखों में
ताई के, मौसी के, मामी के छोटे-छोटे बच्चे
छोटे-छोटे बच्चों के छोटे-छोटे हाथ-पैर
चुन लेती वह भी
एक छोटा-सा नाम.

एक दिन अचानक सब बदल गया.
बेटी है--- पता चल गया.
जिठानी ने जेठ से
ससुर ने सास से
कानाफूंसी की
सबकी राय बनी--
महंगाई बहुत बढ़ गयी है.
फिर एक शाम
एक रात
चुन लिया
जन्म देने - न देने का अधिकार
सुई, सीरिंज , दवा, औजार
और एक सपने का अंत हुआ.

कभी-कभी पूछती है बच्ची--
कब आयेगा छोटू माँ
छोटे-छोटे हाथों से छीनने खिलोने मेरे?
बच्ची तो बच्ची है
समझाए कौन--
सीता-सावित्री के देश में
अपराध है बेटी होना
नहीं तो, कौन किसे देता है मृत्युदंड
 अपनी ख़ुशी के लिए.

   
  

Saturday, March 6, 2010

विदाई की रात

आज तुमने रख लिया
अपना सब सामान
कपडे-लत्ते , रूमाल
जाने को ससुराल.

कल सुबह की ट्रेन और
रात अभी बाकी है
नींद नहीं आँखों में
आंसू से डब-डब
तैरते हैं दिन-महीने-साल.

सुड़कती हो नाक
सोचती हो जानेंगे जुकाम,
जानती नहीं, हज़ार मुंह हैं आंसू के
कह देंगे हाल.

देखती हो निद्रामग्न मिंटू की ओर
धीरे से छू देती हो सिर
पोछती हो आंसू
--स्मृति-जाल .

यह मेज, यह खिड़की
यह अलमारी,यह बेड
यह तकिया, यह चादर
सब छूती हो एक-एक कर
जैसे कह देना चाहती हो-
विदा, मेरे साथियों विदा!

नत सिर बंद आँखें
अँगुलियों में फँसी अंगुलियाँ
भीतर उमड़ता तूफ़ान
सवाल-जवाब, जवाब-सवाल.

छूट रहा सब कुछ जो
बांधा था अब तक
मुट्ठी में कसकर--
छोटी-छोटी खुशियाँ
धुपहले मटमैले सपने
पनियाई यादें
और भी बहुत कुछ जाना-अनजाना.
बेटी हो ना!
बहन हो ना!
यह तो होना ही था एक दिन.

   

कनक चूड़ी

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ला दो ना पिया ला दो कनक चूड़ी
मुझे भी पिया ला दो कनक चूड़ी.
 सोना के कानों  में सोने का झुमका
रूपा के पांवों में पायलिया भारी
बन-ठन के फिरती हैं संग की सहेलियां
एक मैं ही चुप-चुप अकेली बिचारी , पिया ला दो  
ला दो ना पिया ला दो कनक चूड़ी.


पुरुवा के चलने पे झूमेंगे गेहूं
पछुवा में झूमेगी धानों की क्यारी
मन सबके झूमेंगे पानी के संग-संग
एक मैं ही गुम-शुम अकेली बिचारी, पिया ला दो
 ला दो ना पिया ला दो कनक चूड़ी.


सासू की खातिर तो गहने  बहुत हैं
ससुरा की खातिर ये दुनिया है सारी
ननदी की खातिर हैं बनिया-बजाजे
पर मेरी खातिर ना कोई उधारी , पिया ला दो
ला दो ना पिया ला दो कनक चूड़ी.

मर-मर के खटता हूँ किसके लिए मैं
किसके लिए रात जगता हूँ सारी 
परदेशी जिनगी तो जिनगी नहीं है  पर 
एक तेरी खातिर ही सहता हूँ प्यारी, तुझे लाऊं 
लाऊं मैं तुझे लाऊं कनक चूड़ी 
गोरी मैं तुझे लाऊं कनक चूड़ी.