Tuesday, May 17, 2011

छूटना अपनी ज़मीन से...

छूटना हमेशा ट्रेन की तरह नहीं होता
दौड़ते-दौड़ते, भागते-भागते
पटरी-दर-पटरी, सिग्नल-दर-सिग्नल
बदहवास
सब छोड़ देने की कोशिश में.

छूटना हमेशा केंचुल की तरह भी नहीं होता
धीरे-धीरे, रेंगते-रेंगते, सरकते
कुछ फर्क नहीं पड़ता जिससे
नयी-पुरानी खाल साथ-साथ
एक-दुसरे से जुड़ी-जुड़ी
लिथड़ती-लिथड़ती

छूटना केवल छूटने-सा होता है
जब डूब जाती है ज़मीन
डूब जाता है हौंसला
डूब जाती है अपने होने की हनक
बाँध की बढती ऊंचाई में
पानी के पसरते आयतन में
और मॉल की चकाचौंध रौशनी में

जब गर्दन पर रखा हो
भारी-भरकम पैर
और कहा जाता हो
साँस लो जोर से
और जोर से हँसते हुए
दूर टंगे मुआवज़े के
ऑक्सीजन सिलिंडर को देखकर
तब आप ही कहें
छूटना कैसा होता है
अपनी ज़मीन से...






Monday, May 9, 2011

ताल वहीँ से ठोंकी जानी है

ये दुनिया है बाबा
दो दिन का मेला है
सब पेट का खेला है

मदारी है, जमूरा है, बन्दर है
मदारी का खेल है
और खेल मदारी के अन्दर है
या फिर
मदारी खेल के अन्दर है

डुगडुगी बजाता है
हाथ हिलाता है
हवा में पैसा बनाता है
आता-जाता आदमी रुक जाता है
बहुत बार देखा खेल भी 
नया नज़र आता है.

नज़रबंदी का तमाशा है
जो है वह दीखता नहीं
जो दीखता है वह है नहीं
यह बात मदारी जानता है
जमूरा भी जानता है
नहीं जानता है तो बस बन्दर.

छोड़िए, कविता का क्या है
जैसी  भी हो, हो जाएगी
पर एक बात नयी-नयी-सी हुई है
बन्दर पूछ रहा है
पता जंतर-मंतर का
कहता है ताल वहीँ से ठोंकी जानी  है.

Wednesday, May 4, 2011

धूप...

अमलताश के वृक्षों से छन धरती पर छितराई धूप
जाने किसके पग की पायल किसकी है शहनाई धूप

अगली-पिछली सारी बातें अपने सारे सुख और दुःख
कह लो सब कहनी-अनकहनी सबकी सुनने आई धूप

रस्ते-रस्ते आंसू बोया विपदाओं की काटी फ़स्ल
नम आँखों की भाषा पढकर चेहरों पर पथराई धूप

कितनी अच्छी  लगती है जब सो जाती है कोई रात
रात की बातें सोच-सोचकर खुद से भी शरमाई धूप

बादल के संग आँख-मिचोली सूरज से आँखों में बात
मेरे जैसा कौन यहाँ पर फिरती है इतराई धूप

सपने मेरे आँखें तेरी चल सब कुछ यूँ बांटें हम
पनघट पीपल मंदिर पोखर सबसे यूँ कह आई धूप.