Sunday, September 26, 2010

एक चिड़िया की कहानी

चिड़िया ने बनाया घोंसला
चुन-चुनकर तिनका-तिनका
रेशे, डोरे, चमकीली कत्तरें
चोंच-चोंच भर बुने सपने.

मौसम बदला
गंभीर हो गयी चिड़िया
आँखों की बढ़ गयी चमक
अब देर तलक बाहर-बाहर
कर दिया बन्द रहना चिड़िया ने .
पहले अंडे , फिर अण्डों से बच्चे
चूं-चूं चें-चें , लाल-गुलाबी 
उड़-उडकर बाहर जाती
चोंच-चोंच भर लाती चिड़िया
जो कुछ भी ला पाती थी.

बच्चे होने लगे बड़े
खड़े पांव पर होते-होते  
कौतूहल-सी चंचल ऑंखें 
धीरे-धीरे पांखें आयीं
इधर फुदकना ,उधर फुदकना
किन्तु घोंसले की सीमा में.
चिड़िया मन में हर्षित होती
देख फुदकना सपनों का.
खुलती पांखें, मुंदती पांखें
मुडती और सिकुड़ती पांखें
पांखों ने मजबूती पाई
ले बच्चों को दूर गयीं
दूर क्षितिज से भी आगे
पार दृष्टि की सीमाओं के .

चिड़िया अब भी चुप-चुप- अक्सर
बैठी रहती देर-देर तक
सूनी आँखों तकती रहती
राह जिधर से गए थे बच्चे
चिड़िया तब लगती है मुझको
बिलकुल मेरी  माँ के जैसी.



Wednesday, September 22, 2010

एक और लड़की जल गयी है


कवि जी, कविताएँ लिखो तुम .

प्रेम के सब चित्र सुंदर
खूब उकेरे शब्द की बाजीगरी से
भाव चुन-चुन कर सजाए इस तरह
ज्यों चीज हो यह और दुनिया की किसी
फूल-पत्ते-पेड़-खिड़की सब रँगा रोमानियत में
छत से लटकी सांझ भी छोड़ी नहीं
छोड़ी नहीं कहीं कोई कसर
सिद्ध करने में अनश्वर प्रेम को.

तुमने गाए गीत
प्रीति को महिमामंडित किया
मूर्तियों में भी तराशीं प्रेम की संभावनाएं 
उद्भावना की गीत-गोविन्द-रास की
बंधनों से मुक्ति की दी कल्पना
पीर कहकर कष्ट को नाज़ुकी बख्शी
न जाने किस तरह तुमने सुना हवाओं का गान
बोलना देखा भला कैसे निरभ्र आकाश का
पेंच-ओ-ख़म  सुलझाए जुल्फों के
फारमूले से भला किस अलजेबरा के --
पूछती है मृत्यु-शय्या पर पड़ी एक लड़की
अपने मृत्यु-पूर्व बयान में--
कह रहे थे सब मुझे जब
और क्या करती भला मैं ;
गाँव-पुर-देहात-खाप सबकी सह लेती मगर मैं
बाप-भाई-माँ-बहन भी शक करें थे
और क्या करती भला मैं .

कवि जी , कविताएँ लिखो तुम, तुमको क्या
एक और लड़की जल गयी है
प्रेम-ताप से नहीं मिट्टी के तेल से
थोडा-मोड़ा नहीं पूरे सौ प्रतिशत
बी ० एच ० टी ० पर यही लिखा है डाक्टर  ने
अनगिन फफोले तन के ऊपर दीखते हैं
दीखती है देह सारी जली हुई
उबले आलू के छिलके-सी छिलती है चमड़ी
भौंह-पलक-बाल सब झुलसे हुए हैं
मन के फफोले क्यों न कोई देख पाता
देख पाता  क्यों न कोई दाह मन का .

प्रेम मन का , देह पर शंका तमाम
सिद्ध करने को अनघता प्रेम की
क्यों जलानी पड़ती है देह--
पूछती है हॉस्पिटल के बेड पर लेटी हुई लड़की
अपने मृत्यु-पूर्व बयान में.

तुमको क्या, तुम कविताएँ लिखो ,कवि जी !



 





Friday, September 17, 2010

मैं उदास हूँ तो हुआ करूँ

जिसे चाहता था मिला नहीं
जिसे पा लिया उसे क्या करूँ
मैं उदास हूँ इसी बात पर
जियूं दर्द या कि हँसा करूँ .

जिसे प्यार से कभी आंख में
मैंने स्वप्न कह के बसा लिया
उसी शाम का भला किस तरह
किसी और से मैं बयां करूँ .

ये जो दर्द है ये अजीज है
जो ये रात है ये सवाल है
यूँ ही चाहता हूँ कि टूटकर
तुझे भूलने की दुआ करूँ .

जिन्हें पढ़ लिया वही गीत हैं
जो  लिखे गए वही स्वप्न हैं
 जो टपक गए मेरी आंख से
तेरे उन खतों का मैं क्या करूँ.

कभी याद की किसी डाल से
जो उलझ गयी थीं शरारतें
उन्हें बारिशों ने भिगो दिया
मैं उदास हूँ तो हुआ करूँ.

Wednesday, September 15, 2010

सुन लो संसार के प्लेटो-अरस्तू

आज नहीं सदियों से
फूटते रहे हैं ज्योति-पुंज
फैलती रही है ज्ञान-रश्मि मृत्यु-लोक में
चेतना अतीत निज करने  सन्धान
काल-गति के संग पांव-पांव
डगर-डगर घूमती रही है अविराम .

झाँक उर-अंतर में पाने को परम सत
अंतस की ऑंखें धुंधलाई हैं बार-बार 
भीतर से बाहर फिर बाहर से भीतर
मिल जाये कुछ उत्तर
बस इसी एक प्रश्न का--
मैं कौन हूँ  ?

थके हैं मन तन क्षरते गए हैं
तर्कों के स्वर घुटे  प्राणहीन मौन हुए 
सारे सिद्धांत , शब्द , पन्ने किताबों के
चर्चे विद्वानों के , ज्ञान की आयोजनाएं
गए तो हैं सभी किन्तु  सिर्फ एक-दो ही पग .
शब्द कठिन अर्थ भरे , वाक्य सभी छोटे- बड़े
रचते हैं लोक एक भय का , रहस्य का
खींचते हैं रेखाएं धरती- आकाश तक
पाने को ओर-छोर अपना ही एक बार .

 जान लिया मैंने--  यह एक ने उद्घोष किया   
 ज्ञानी है , ज्ञानी है-- और कई स्वर मिले
सिद्ध करो -- कहकर यह ज्ञानी एक और हुआ
और एक , और एक , एक-एक फिर कई हुए
कहने के ढंग अलग
रहने के रंग अलग
खींच लिया घेरा और मान लिया सिद्ध हुए .
अनुयायी भेड़ बने चलते हैं साथ-साथ
जिसके संग जितने हैं
वह सत है उतने अंश
सत का यह मानदंड दिया सभी ज्ञानों ने.

जो तुमने जाना था वह सत तुम्हारा था
सुन लो संसार के प्लेटो -अरस्तू ,
जिसको मैं जानूंगा वह होगा  सत मेरा
मैं ही तो जानूंगा आखिर मैं कौन हूँ !
उस पल तुम थे , वह पल तुम थे
इस पल मैं हूँ , यह पल मैं हूँ
और दो पलों के बीच में अनंत है.

Monday, September 13, 2010

थकी-थकी निगाह

थकी-थकी निगाह ने बता दिया है ये हमें
कि देखते रहे हो तुम स्वप्न कोई रात भर
देहरी पर दीप रख मुड़ के चल दिया कोई
और संग ले गया मन भी अपने बांधकर .

बन्द मुट्ठियों से कल
फिसल गयी किरन कोई
हवा बहा के ले गयी
धुला परागकण कोई

अटक गए हो बस उसी हवा के तुम ख्याल में 
नयन-जड़ी ज्यों मुद्रिका अनामिका की गाँठ पर .

दिन चढ़ा तो धुल गयी
लालिमा अंजोर की
हो गयी विलीन भी
गंध मंद भोर की

दिन चढ़े की धूप मन में रख गयी अकेलापन
रखा ज्यों रिक्त देव-गृह में दीपदान मांजकर .