Thursday, December 30, 2010

सच यही है, झूठ इसमें कुछ नहीं है

ये मेरे अक्षत अधर तेरे लिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी
झील हैं तेरे नयन जलते दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

तू अगर गीतों में मेरे प्रेम-स्वर पहचान ले
तू अगर मेरी हंसी का लक्ष्य खुद को जान ले
अर्घ्य में एकादशी के नाम मेरा ले अगर
तू हृदय के बंध का सम्बन्ध यूँ ही मान ले
दोष तेरा ही है इसमें सुन , शुभे

पल कोई मैंने  तेरी खातिर जिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

सांझ की पिछली किरण से नेह था, मैं मानता
साड़ियाँ छत पर सुखाती  थी तुझे मैं जानता
बस यूँ ही दो-इक  दफा हिलते अधर खिलते नयन
दिख गए होंगे कभी इतना ही मैं पहचानता
हर किसी पहचान को अब प्रेम तो कहते नहीं

प्रात मैंने रात जग अनगिन किये हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

एक  कोई लेके मुझको जी रहा है सांस में
एक  कोई नाम मेरी उम्र भर की प्यास में
दिन गए कई साल बीते जब शरद की एक सुबह
लिख उठा था नाम कोई और मेरे पास में
सच यही है , झूठ इसमें कुछ नहीं है

पुण्य सब संकल्प तुझको कर दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी.


Thursday, December 23, 2010

दो कदम तेरी तरफ मैं फिर चलूँ


प्रिय आज मैंने फिर जलाया सांध्य-दीपक
आज मेरा मन हुआ है फिर जलूं
अधिकार सब निःशेष तुझ पर हो चुके पर
चाहता हूँ एक दफा मन फिर छलूं

     फागुनी वाताश  में बिखरी हुई मधुगंध जैसे
     याद बनकर बस गयी है मौन मन के पोर में
     बीतते पतझड़ में डाली से विलग पत्ते सरीखा
     चाहता  तन बंध के  रहना पीत आँचल-कोर में

गो पाँव मेरे थक चुके पर शेष चाहत
दो कदम तेरी तरफ मैं फिर चलूँ

     रूप की आराधना की साध पूरी हो चुकी पर
     स्नेह के सम्बन्ध बंधने की ललक बाकी रही
     देवता भी, दीप भी हैं देव-मंदिर-गर्भगृह में
     अंजुरी-जल अर्घ्य कर दे किन्तु वह श्रद्धा नहीं है

भेंट दूं सर्वस्व दीपक की सदाशयता को मैं
और घुप अंधियारे सरीखा फिर गलूं .

Friday, December 17, 2010

अकेले में कुछ यूँ ही....

एक मधुगंध बींध जाती है पोर-पोर
भोर की उजास भर कसकता है मन
कानों में जब घोल जाती है मधुर ध्वनि
पायल की एक कोई अल्हड छनन
     यादों की तनी-तनी चादर पर सलवट-सी
     छोड़ चली जाती है अक्सर पुरवाई
     दबी-छिपी बातों को खोल-खोल देती है
     ऊबी-ऊबी थकी-थकी बोझिल तन्हाई
कुशा के कटीले वन चुभते हैं देर तलक
भीग-भीग आते हैं पागल नयन
     पेड़ों से पत्तों के टूट-टूट जाने की
    टीस ज्यों हवाओं में, ऐसी चुभन
    राहों में धूल भरे पांवों की कदमताल
    मंजिल को पाने के झूठे जतन
निशा के अँधेरे में खिलते हैं झूठ-मूठ
आस के नशीले और छलना सुमन
    समय छोड़ जाता है चिह्न कई हर ओर
    और आंक जाता है अपने चरण
    रीत-रीत जाती है चाम की मशक किन्तु
    बार-बार पानी का करती वरण
खंड-खंड जीवन का योग है सिफ़र और
गिने-चुने उपलब्ध केवल चयन.

Monday, December 13, 2010

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं
यह ज़मीन की आकाश छूने  की ज़द्दोजहद भी नहीं
किसी अहंकार का निर्लज्ज वैभव-प्रदर्शन भी नहीं
यह नहीं है हवा की किसी ऊपरी परत में सांस लेने की कोशिश
या फिर धरती की गलीज़ बजबजाहट से दूर होने का ख्याल .

ऐसा मानना निहायत गलत होगा --
यह दलाल-पथ के हुनर का नमूना है
या हमारी जेब से रिसती दुअन्नी का नतीजा है
न यह काल के गाल पर पड़ा डिम्पल है
और न ही मजाक है दौलत के सहारे किसी मोहब्बत का

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं
मेरे मित्र , यह 'धूमिल' के आधी सदी पुराने प्रश्न का ''कौन''  है
आपको क्या लगता है , मेरे देश की संसद यों ही मौन है !!