Sunday, July 21, 2013

दंतचियार ग़ज़ल

पत्थर पर सिर मारे जा
मन की खीझ उतारे जा

चुनने तक ही हक था तेरा
अब तो दांत चियारे जा

अपनी-अपनी ढपली सबकी
अपने राग उचारे जा

अंधी पीसे कुत्ता खाए
संसद के गलियारे जा

बहती गंगा डुबकी लेले
चैन से डंडी मारे जा

रामसनेही नाम रखा ले
सबकी खाल उतारे जा .

Sunday, July 14, 2013

मैं तुम्हारी राह में हूँ

रख दिया था जो कभी गीत-सा तुमने अधर पर
मैं उसी प्रतिदानपूरित स्नेह की फिर चाह में हूँ
मैं तुम्हारी राह में हूँ

मैं घरों में , मैं सड़क पर उम्र के इस मोड़ पर
देखता फिरता हूँ चेहरे जोड़कर कुछ तोड़कर
और फिर जाती निगाहों में वही तस्वीर जो
आरती की झिलमिलाती छाँह आया छोड़कर

फिर चले आए हैं पर्वत पार से उड़ते पखेरू
मैं भी ऐसे ही किसी की सांस में हूँ, आह में हूँ
मैं तुम्हारी राह में हूँ

मैं लकीरें खींचता हूँ बांधता आकार को मैं
शब्द गढ़ता हूँ अजाने अर्थ देता प्यार को मैं
रूप के इतिहास का खोजी रहा बरसों मगर
दे न पाया हूँ अभी तक एक कण संसार को मैं

दूर तक नाकामियों की रेत  भर फैली हुई है
पर नदीजल-सा उसी उम्मीद में, उत्साह में हूँ
मैं तुम्हारी राह में हूँ .   

Tuesday, July 2, 2013

केकयी के दो वरदान

वह युद्ध था अन्याय के
प्रतिरोध का प्रतिकार का
वह युद्ध दैवी-राक्षसी
प्रवृत्ति के वर्चस्व का
वह युद्ध विजयी और विजित
के पार भी जो व्याप्त था .
बस एक निर्णय
एक निर्णय ने बदल
डाली भविष्यत की दिशा .

रथचक्र की धुरी घिसी
रथ अनियंत्रित लडखडाया
लडखडाया विजयध्वज
श्लथ बन्ध कबरी का लिए
निज हस्त को धुरी किए
ली थाम ध्वजा धर्म की
केकेयसुता दशरथप्रिया ने
बस एक पल था, एक ही
निर्णय मरण-अमरत्व का
अस्तित्व की बाज़ी लगा
की मानरक्षा सूर्यकुल की

युद्ध बीता , जय देवों की
कृतज्ञ दशरथ ने कहा --मांगो प्रिये ,
कर शक्तिभर प्रयत्न , करूँगा पूरा
वर , मैं देवमित्र  रघुवंशी अजनन्दन .
सोचती हूँ कितना है मादक
भ्रम दाता होने का
कुछ-कुछ घृणित भी
सर्वस्व समर्पिता को लालच वरदान का
चुप हो रहना केकयी का
कुछ नहीं , कुछ भी नहीं
बस श्रेष्ठता के दंभ का रेखांकन भर
वह वर , दंभ श्रेष्ठता का
नकार नारी के प्रेममय बलिदान का
पा समय प्रस्फुटित हुआ
विषकंद-सा करने विषाक्त
अबोध मन जीवन अनेक
बस एक पल एक निर्णय
दे गया अनगिन व्यथाएं .

सुनती हूँ सास कहा करती हैं
मिहिरवंश में प्यार
एक हथियार सदा वंचित करने को
नैसर्गिक अधिकार समर्पण का नारिसुलभ
तोल दिया जाता वरदानों की निर्जीव तुला में .


(भरत की पत्नी मांडवी की नज़र से रामकथा लिखने की कोशिश की थी कभी)

Saturday, June 22, 2013

कैसा गीत सुनाऊं

तुम्हीं बताओ आज तुम्हें मैं कैसा गीत सुनाऊं
अपने मन की बात कहूँ या जग की रीत सुनाऊं

कुछ ऐसा जो हँसी बिखेरे या आंसू बरसाए
कुछ यौवन की रंगरलियाँ या फिर बचपन के साए
बीते दिन जो लाया करतीं किरणों वाली परियां
या आगत का अनजाना पल जिसने स्वप्न दिखाए

सब कुछ हार गया मैं जिसमें ऐसी जीत सुनाऊं

गाऊं मैं हेमंत शिशिर या सावन की बरसातें
जेठ की जलती दोपहरी या भादों वाली रातें
क्या वसंत की मादकता या धरती की अंगड़ाई
या फिर गीतों में मैं ढालूं फागुन वाली बातें

गिनने को जो दिन दे जाए ऐसी प्रीत सुनाऊं

इस दुनिया से दूर की बातें या जग की सच्चाई
भीड़ में खोया जीवन या कि मुट्ठी भर तन्हाई
संबंधों के बंधन या फिर आवारा आज़ादी
या वो आँचल तुम्हें सुनाऊं जिसमें धरा समाई

मुझको गीत बनाया जिसने वो मनमीत सुनाऊं
तुम्हीं बताओ आज तुम्हें मैं कैसा गीत सुनाऊं 

Friday, June 14, 2013

कुछ ग़ज़ल जैसा

धुएं  की लकीर हवा में ठहरती कब तक
ज़िन्दगी दौर से ऐसे गुजरती कब तक

सुबह छुपा क्यों न लेती कोहरे में मुंह
बर्फ-सी धूप में आखिर सिहरती कब तक

अँधेरा घिर गया ! घिरना था , क्या हुआ
पकी-सी धूप मुंडेरी पे ठहरती कब तक

एक तू ही नहीं राह में और भी थे कई
मंजिल तेरा इंतज़ार और करती कब तक

सो गयी थककर तुझे आंखों में लिए
कोई रात जुगनुओं से संवरती कब तक

आज खुल ही गयी आखिर अपनी हक़ीकत
हँसी उधार की चेहरे पे उतरती कब तक   

Tuesday, June 11, 2013

सखि ! तुमसे यह कैसा नाता !

सखि ! तुमसे यह कैसा नाता !

बादल बरसे धरती हरसे
पत्ता-पत्ता जीवन सरसे
तन मेरा भी भीगे लेकिन
मन पपिहे-सा टेर लगाता
सखि ! तुमसे यह कैसा नाता !

चंचल पलकें ढलकी अलकें
जिन अधरों से अमृत छलके
छू साँसों से अर्घ्य समर्पित
उनको देवि ! नहीं कर पाता
सखि ! तुमसे यह कैसा नाता !

पास बिठाऊँ गीत सुनाऊँ
मन की बातें कहता जाऊं
चाहा है कई बार मगर फिर
मौन न जाने क्यों रह जाता
सखि ! तुमसे यह कैसा नाता

नयन भिगोते आस पिरोते
संग तुम्हारे हँसते-रोते
दिन जीवन के कट जाते पर
स्वप्न भोर का मन कसकाता
सखि ! तुमसे यह कैसा नाता !

Sunday, March 24, 2013

हम नदी के द्वीप

हम नदी के द्वीप संग-संग
फिर भी कितनी दूर हैं

     बीच में जलधार निर्मल
     पद तले अविचल धरातल
     जोड़ता आकाश हमको
    शब्द टलमल चिर विकल

दूर हैं बस हाथ भर
जल-कमल के पात भर
साथ हैं मिलना नहीं
कुछ इस तरह मजबूर हैं

     तुम हँसे मैं चुप रहा
     दुःख मेरा तुम मौन हो
     दृष्टि में मोजूद लेकिन
     कौन जाने कौन हो

मन  अपरिचित तन अपरिचित
स्नेह-रीते प्रेम-वंचित
रिक्त अंचल रिक्तता का
धन लिए मगरूर हैं

     कौन जाने किसलिए यों
     रख गया ऐसे अलग
     चल न सकते पास आने
     के लिए हम एक पग

तुम बंधे मैं भी  बंधा                                                                                  
रज्जु ज्यों अपनी व्यथा
मुक्त होने की मगर हम
चाह से भरपूर हैं
हम नदी के द्वीप संग-संग
फिर भी कितनी दूर हैं .

Saturday, March 9, 2013

लतखोर टाइप का समय

लतखोर टाइप  का यह समय
सभ्य भाषा में नहीं लिखा जा सकता
मूत को मूत लिख देना
सौन्दर्यबोध का स्खलन हो सकता है
मगर मैं जानता हूँ उसकी बदबू
किसी भी दूसरे शब्द में देर तक नहीं रुक सकती

उपमेय उपमान उपमाएं सब शिथिल हैं
मर्दानगी के तमाम उपक्रमों के बावजूद
ओखली में धान की तरह कुटे शब्द
नहीं रह गए हैं उगने लायक

तुम जब भी कहते हो मेहनत
बाज़ार एनर्जी ड्रिंक चमकाता है
तुम कहते हो घाम 
छतरियों के रंग बिखेर दिए जाते हैं
मैं जानता हूँ तुम्हारे संघर्ष और धूप  कहने में
कही जाती है पसीने की गंध और रोटी और इज्ज़त
मगर समझा जाता है डेऑड़रेन्ट और सनस्क्रीन लोशन
यह शब्दों से संवेदनाओं के निकल जाने का समय है
यह बाज़ार के विस्तार का समय है .