Wednesday, September 22, 2010
एक और लड़की जल गयी है
कवि जी, कविताएँ लिखो तुम .
प्रेम के सब चित्र सुंदर
खूब उकेरे शब्द की बाजीगरी से
भाव चुन-चुन कर सजाए इस तरह
ज्यों चीज हो यह और दुनिया की किसी
फूल-पत्ते-पेड़-खिड़की सब रँगा रोमानियत में
छत से लटकी सांझ भी छोड़ी नहीं
छोड़ी नहीं कहीं कोई कसर
सिद्ध करने में अनश्वर प्रेम को.
तुमने गाए गीत
प्रीति को महिमामंडित किया
मूर्तियों में भी तराशीं प्रेम की संभावनाएं
उद्भावना की गीत-गोविन्द-रास की
बंधनों से मुक्ति की दी कल्पना
पीर कहकर कष्ट को नाज़ुकी बख्शी
न जाने किस तरह तुमने सुना हवाओं का गान
बोलना देखा भला कैसे निरभ्र आकाश का
पेंच-ओ-ख़म सुलझाए जुल्फों के
फारमूले से भला किस अलजेबरा के --
पूछती है मृत्यु-शय्या पर पड़ी एक लड़की
अपने मृत्यु-पूर्व बयान में--
कह रहे थे सब मुझे जब
और क्या करती भला मैं ;
गाँव-पुर-देहात-खाप सबकी सह लेती मगर मैं
बाप-भाई-माँ-बहन भी शक करें थे
और क्या करती भला मैं .
कवि जी , कविताएँ लिखो तुम, तुमको क्या
एक और लड़की जल गयी है
प्रेम-ताप से नहीं मिट्टी के तेल से
थोडा-मोड़ा नहीं पूरे सौ प्रतिशत
बी ० एच ० टी ० पर यही लिखा है डाक्टर ने
अनगिन फफोले तन के ऊपर दीखते हैं
दीखती है देह सारी जली हुई
उबले आलू के छिलके-सी छिलती है चमड़ी
भौंह-पलक-बाल सब झुलसे हुए हैं
मन के फफोले क्यों न कोई देख पाता
देख पाता क्यों न कोई दाह मन का .
प्रेम मन का , देह पर शंका तमाम
सिद्ध करने को अनघता प्रेम की
क्यों जलानी पड़ती है देह--
पूछती है हॉस्पिटल के बेड पर लेटी हुई लड़की
अपने मृत्यु-पूर्व बयान में.
तुमको क्या, तुम कविताएँ लिखो ,कवि जी !
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अनगिन फफोले तन के ऊपर दीखते हैं
ReplyDeleteदीखती है देह सारी जली हुई
उबले आलू के छिलके-सी छिलती है चमड़ी
भौंह-पलक-बाल सब झुलसे हुए हैं
मन के फफोले क्यों न कोई देख पाता
देख पाता क्यों न कोई दाह मन का .
दिल को भीतर तक हिला देने वाली पंक्तिया....
http://veenakesur.blogspot.com/
आज भी अंदर तक हिला गई आपकी कविता, अंदाज अलग था तो हलचल भी जुदा किस्म की है, बस।
ReplyDeleteकवि ने लिखी प्रेम कवितायेँ ...
ReplyDeleteउसे प्रेम पर भरोसा है ...
जलाने वाले वो हैं ...
जिन्हें ना प्रेम पर भरोसा है
ना लड़की पर
और सबसे जयादा
अविश्वास खुद पर ...!
बेहद मार्मिक...
ReplyDeleteये विद्रूपताएं.........मानवीय़ मूल्यों का विषण्ण हनन .....बहुत गहरी हैं इनकी जड़े .....सभ्यता के विकास में न जाने कौन सी भूल है वह जिसका खामियाजा इस तरह सामने है.
ReplyDeleteहां ....कवि तो बस कविताएं ही लिखेगा . इस नपुंसक प्राणी के बस का और है भी क्या ? लेकिन कवि की इन कविताओं से प्रसूत संवेदनात्मक जागृति उन नृशंस जघन्यताओं के प्रत्यक्ष प्रतिरोध में नहीं तो कम से कम समानान्तर, एक मजबूत अवरोध खड़ा करती है !
दर्द की कोख से जन्मी कविता तो बहुत पढी, लेकिन कविता की कोख से जन्मा दर्द महसूस कर रहा हूँ अपने जिस्म पर, अपनी रूह पर.. रजनी कांत जी आप ने तो समस्त कवि और लेखकों की ज़ात को शर्म के समन्दर में डुबो दिया है..ऐसा लगता है कि उस मरती हुई लड़की ने अपने डाईंग डिक्लेरेशन में साक्ष्य के तौर पर मेरी तरफ उँगली उठाकर इशारा किया हो, और पूछे जाने पर कि तुमने क्या देखा..मैंने बस इतना कहा, “मैंने कुछ नहीं देखा, क्योंकि ये गुहार लगा रही थी और मैं एक नारी के सम्मान में कविता लिख रहा था.”
ReplyDeleteआप की रचना 24 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
कहने को शब्द नही……………सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है।
ReplyDeleteओह ...बहुत मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteहर बार स्तब्ध करते हैं आप !
ReplyDeleteइस कविता का ताप महसूस रहा हूं !जल रहा हूं !
अभिषेक की बात से भी सहमति !
बेध देती है कविता, मन संतप्त हो जाता है
ReplyDeleteवाह ....भाई .....कितनी वेदना के साथ क्रूर इंसानी चरित्र की बखियां उधेडी है आज के समाज में एक जाते हुए इन्सान के मर्म के साथ अंत समय तक भी क्रूर खेल खेलती इंसानी फितरत ....बहुत बढ़िया लिखा है ....सर जी ...बधाई आप को !!!!!!Nirmal Paneri
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