Sunday, October 11, 2009

जून में यमुना

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सूरदास बहुत याद आए।
सूखी यमुना के तल में खड़ा होकर सोचता रहा---कालिय नाग क्या कर रहा होगा? ताजेवाला बैराज के पीछे निवास बना लिया होगा शायद!!
' देखियत कालिंदी अति करी'
रेत का रंग काला है यमुना के तल में। पहाडों की बनावट का असर होगा। यमनोत्री में बरफ अब भी पिघल रही होगी शायद। प्रयाग में गंगा के गले में यमुना का हार अब भी शोभित होगा। पर यहाँ, सहारनपुर जिले की नकुड तहसील के गाँव दौलतपुर में यमुना सूखी पड़ी हैं। हाँ, सूखी!!!!! एक बूँद पानी नहीं!बस रेत ही रेत! नदी के पेटे में खड़ा था, रेत देख रहा था, फिर भी एक उम्मीद थी कि शायद आगे कोई धारा हो, पर नहीं। सत्य ऐसा ही होता है--- अविश्वसनीय!!
'आए जोग सिखावन पांडे'
उद्धव, तुम्हारा बैराग ही सही था । बिना यमुना गोपी-कृष्ण-विछोह कहाँ! और विछोह नहीं तो प्रेम कहाँ! प्रेम के बिना पतियाँ-बतियाँ-छतियां-रतियाँ कहाँ!और इनके बिना बिदापत , सूर, नन्द या रत्नाकर ही कहाँ रह गए!
दौलतपुर यों निर्धन कर देगा, क्या पता था! जाता ही नहीं। पर अब तो चला गया। जाने से गाँठ कि पूँजी यों चली गई कि क्या कहें। भकुआ गया हूँ। भकुआना नहीं समझे ना!सूखी यमुना को देखेंगे तभी समझ पाएंगे।
केन, बेतवा, चम्बल-- सभी रास्ते में ठिठकी होंगी------जिससे मिलने आए, वह तो है ही नहीं!!सहायक नदियों कि परिभाषा बदलनी पड़ेगी। सहायक भरे-पूरों के होते हैं, खाली पेट वालों के थोड़े ही!

सामान और आदमी


आदमी सामान नहीं होता पर अपने हर  सामान में थोड़ा-बहुत आदमी ज़रूर होता है.
सामान समेट कर जाना किसी की ज़िन्दगी से जाना भी होता है. सामान केवल जगह ही नहीं घेरता मन भी घेरता है. वैशेषिक दर्शन कहता है-- अभाव  भी वस्तु है.
जाने के बाद का खालीपन स्थान और मन -- दोनों को महसूस होता है.