Saturday, March 26, 2011

साम्राज्यवाद बदनाम शब्द है

तुमने तय किया --
कृण्वन्तो विश्वमार्यम 
और चल दिए थामे  वल्गाएँ
श्वेत, सुपुष्ट अश्वों की
घाटियों-शिखरों-दर्रों के पार
ढूँढने मानव-बस्तियां
बनाने को उन्हें श्रेष्ठ !

अथाह जल-भरी सदानीराएं
मैदान अकूत अन्न-धन से भरे
नहीं थे , नहीं ही थे दृष्टि में तुम्हारी
बर्बर, लोलुप आक्रांताओ !
मान लेने को जी करता है
जोर पर तलवार के नहीं
सदाशयता से तुम्हारी
फैली करुणा और ज्ञान की रोशनी
अंधकूप में पडी असभ्यताओं तक !

बरसों-दशकों-सहस्राब्दियों...
जारी है अनवरत खेल
तुम तय करते हो
मुक्त करना है किसे और कितना 
कब और कैसे भी तुम्हीं   तय करते हो.

धरती की कोख से खोदने के बाद काला सोना 
खदानें  भर दे जाती हैं रेत से
तुम निचोड़कर हमारी स्थानीयता
खालीपन को पूरते हो अपने जैसा-पन से

इस हद तक जुनून है
दुनिया को सभ्य करते जाने का 
लोकतंत्र पहुंचाते हो तुम मिसाइलों पर लादकर 

बर्दाश्त  कर  पाना  कठिन  है
अपने से अलग भी  कुछ  है जो विशिष्ट  है
 जो अपने से अलग है   असभ्य है
जो अपने से अलग है  निर्दयी है
जो अपने से अलग है  कूढ़मगज है 
जो अपने से अलग है   आततायी है
जो अपने से अलग है   अंधकार में है

कृण्वन्तो विश्वमार्यम 
साम्राज्यवाद बदनाम शब्द है.


Wednesday, March 23, 2011

आम की खामोशी

मन ख़ास का होता है
तुम आम ठहरे
ऐसा कैसे कर सकते हो 
बौराए नहीं इस बार !
इस बार फूले नहीं फलने की उम्मीद में !

ऐसा भी कहीं होता है 
कि मन नहीं हुआ तुम्हारा 
और तुम नहीं फूटे बौर बनकर 

बौर का फूटना मन की मौज भर नहीं है 
किसी उम्मीद के लिए जीने का सबूत है
मोर्चा है खतरनाक बासंती चुप्पियों के खिलाफ 

आम तुम्हारी ख़ामोशी उतनी आम नहीं 
राडिया-कलमाडियों के नाजायज़ समय में.


Thursday, March 17, 2011

मन मछेरा

फेंकता है जाल
बटोर लाता है तुम्हारी यादें
मन मछेरा रोज़ रात
रोज़ रात जागती है आँख 
आँख में जागते हैं दिन तुम्हारे प्यार के.

भीगती है ओस 
रात कसमसाती है
बात कुछ होती नहीं है
उनींदी चादरों की सलवटें
कुछ अचकचायी देखती हैं
देखती हैं धर गया है कौन
बीते दिन तुम्हारे प्यार के.

मन मछेरे 
कल सवेरे
फूटती होगी किरण उम्मीद की जब
ओस को करके विदा चुपचाप
दिन चढ़ने लगेगा
हम चलेंगे दूर सागर में 
हवा के पाल पर
ढूँढने अपने पुराने दिन किसी के प्यार के.


Monday, March 14, 2011

ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है

ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है
आप सोचते हैं जितनी
स्कूल गए बच्चे लौट आते हैं घर, अधिकतर
रोटियां रखती हैं टिफिन में पत्नियां अब भी
अब भी छोले की ठेली लगती है आफिस के बाहर
पगार का इंतज़ार वैसा ही है
वैसा ही झुकता है सिर सांझ को बत्ती जलाकर

उदास मौसम में भी खिलते हैं कुछ फूल
धूल के पार रोशनी का यकीन बाकी है अभी
बाकी है अभी मधुमक्खियों के छत्तों में शहद
उन्हें तोड़ने का हौसला भी
चोट लगने पर निकलती है अभी चीख
जीभ अब भी काम आती है बोलने के

लोकतंत्र लाठी पर जूते-सा टंगा ज़रूर है
पर हुज़ूर के पांवों में शुगरजनित गैंग्रीन  है
और लाठियों में टूटने का डर
तहरीर चौक इसी दुनिया की चीज है
ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है
जितनी सोचते हैं आप.