Wednesday, June 30, 2010

एक अनलिखा खत

चाहता हूँ मैं कि तुमको ख़ूबसूरत ख़त लिखूं

     ख़त कि जिसमें मौन भी हो बात भी हो  
     ख़त कि जिसमें चाँद भी हो रात भी हो
    ख़त कि जिसमें शबनमी सौगात भी हो
     ख़त कि जिसमें स्नेह की बरसात भी हो

अनकहे किस्से भी हों कुछ अनछुए पल भी कुछेक
उम्र के इस मोड़ पर एक बचपनी हसरत लिखूं .
चाहता हूँ मैं कि तुमको ख़ूबसूरत ख़त लिखूं.



     रेत के कच्चे घरोंदों-सा सजीला ख़त
    गुलमुहर के फूल-सा कुछ लाल-पीला ख़त
     याद की उतरन में संवरा तंग-ढीला ख़त
     कोर पर आँखों की उभरा मन , पनीला ख़त

इस बरस बरसात में चमके हैं ढेरों इन्द्रधनु
छोर की ख्वाहिश में उलझा मौन मन आहत लिखूं .
चाहता हूँ मैं कि तुमको ख़ूबसूरत ख़त लिखूं



     ख़त कि जैसे अधखिले फूल की एक पाँखुरी
     ख़त कि जैसे जेठ में पुरुवाईओ  की झुरझुरी
     ख़त कि जैसे भोर में बज उठी हो बांसुरी
    ख़त कि जैसे रामगिरि से  आ मिली अलकापुरी

बादलों को दूत भेजा था कभी एक यक्ष ने
ऋतुमती ऋतुओं की अलकें बांध संयम-व्रत लिखूं.
चाहता हूँ मैं कि तुमको ख़ूबसूरत ख़त लिखूं



     ख़त कि जिससे मौन-मंदिर में बजें कुछ घंटियाँ
     ख़त कि जिससे धूममय हों कामना की वेदियाँ
     ख़त कि जिससे गूँज जाएँ गीत-गोविन्द-पंक्तियाँ
     ख़त कि जिससे पा सके कान्ह बिछुड़ी कनुप्रिया

एक लोटा जल सुबह सूरज को एक दिन भेंटकर
नाम इस सम्बन्ध का एकादशी का व्रत लिखूं
चाहता हूँ मैं कि तुमको खूबसूरत ख़त लिखूं .  








Tuesday, June 29, 2010

यक्ष-प्रश्न


बन्द आँखों से पढनी होगी तुम्हें
नए युग की गीता ,
बिना हाथों के तोडना होगा तुम्हें
गान्डीवों  का गर्व
मेरे दोस्त,
बीमार , वृद्ध या मृतक देखकर
नहीं हो जाता हर कोई बुद्ध.
दीवार पर लिखी इबारत
चीखकर  कहती है--
सीखो
अपने होने पर सवाल उठाना ,
तुम्हें मिल जाएगा जवाब
यक्ष-प्रश्नों का
युधिष्ठिर  हुए बिना.   

Thursday, June 24, 2010

पढ़ना-लिखना सीखो , ऐ मेहनत करनेवालो

अटारियों में अटकी रोशनी की किरण
सरकने लगी है
सरकंडे की छाजन के नीचे
काली पट्टियों पर दूधिया रेखाएं बनाने.

खड्डी   खटकाते  हाथ
लिखने लगे हैं
जूठन सहेजती आँखों की भाषा
लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर .

अंगूठे की रेखाओं का
कमला, विमला या रामप्रसाद हो जाना
प्रस्तावना है
एक नए संविधान की ,
धाराओं, अनुच्छेदों की जकड से मुक्त
गुलाबी खम्बों के बाहर भी अस्तित्व है जिसका.

पथरायी अँगुलियों
धुंधलाई आँखों
लिखा-पढ़ा हर अक्षर
घोषणापत्र है
उस नयी सुबह का
जो धूप बाँटने से पहले
कुल, जाति या धर्म नहीं पूछती.  

( दूरदर्शन पर साक्षरता सम्बन्धी एक विज्ञापन देखकर )

Wednesday, June 23, 2010

वही मैं हूँ - वही तुम हो

वही मैं हूँ
वही तुम हो
वही सुनसान सड़कें.

वही सोए हुए पत्ते
वही सीली हवाएं
वही नादान गुलमोहर
वही चुप-सी दिशाएँ
वही आकाश में चंदा
वही तारों की टिम-टिम
वही झींगुर की तानें
वही है ओस भी मद्धिम

 वही मैं हूँ
वही तुम हो
वही सुनसान सड़कें.

वही कुछ फूल-से किस्से
वही कुछ धूप-सी बातें
वही कुछ दीप-से वादे
वही कुछ गंध-सी साधें
वही चुप-चाप संग चलना
वही बेबात का हँसना
वही रुक देखना यूँ ही
वही मनना, मचल जाना

 वही मैं हूँ

वही तुम हो
वही सुनसान सड़कें.

वही किस्से पडोसी के
वही माँ की बीमारी
वही भाई की नादानी
वही अनजान लाचारी
वही इतिहास के चर्चे
वही फ़िल्मी ठहाके
वही संवाद नाटक-से
वही झुकना अदा से


वही मैं हूँ
वही तुम हो
मगर वर्षों की दूरी है

न वो साझा समंदर है
न वो पहले- सी  लहरें हैं
मेरे भी पांव में बंधन
और तुम पर भी तो पहरे हैं
कहीं मैं भी हिचकता हूँ
तो कुछ तुम भी छुपाते हो
न पूरा सच मैं कहता हूँ
न तुम ही सच बताते हो
वही सब कुछ मगर फिर भी
कहीं कुछ रिक्तता-सी है
जुड़े हैं हम बहुत लेकिन
कहीं कुछ भ्रंश बाकी है

न वो मैं हूँ
न वो तुम  हो
वही सुनसान सड़कें .

मेरा 'मैं' मुझे रोके
तुम्हारा 'तुम' तुम्हें बांधे
बहुत मुश्किल है मुक्त होना
खुलें और हो रहें आधे
न ये मंज़ूर है तुमको
न ये मंज़ूर है मुझको
मगर कुछ कम नहीं यह भी
कि हम तुम साथ हैं दोनों .

न वो मैं हूँ
न वो तुम हो
वही सुनसान सड़कें. 














Sunday, June 13, 2010

एक पूरा बरस : अधूरा समझौता

तुमने ठीक ही लिखा है--
न आने पायें उदासी के झोंके ,
फुहारें दर्द की न पड़ें सुबह-शाम,
आँखों में परछाइयाँ बादलों की
थमें केवल, जमें नहीं सावन में .

--- यह सब कुछ  चाहता हूँ  मैं भी
पर दोस्त,
एक  पूरा बरस होता है दो सावनों के बीच
तीन ------सौ------पैंसठ------दिन ,
एक पूरा पतझड़ ,
एक पूरा चिल्ला जाड़ा ,
एक पूरा धुआंसा फागुन ,
एक पूरा उदास वसंत,
एक अ-स्मरणीय शाम
एक अप्रत्याशित खबर
एक अधूरे समझौते की शुरुआत
और  एक पूरे सपने का अंत .

 इस अन्तराल के बाद
अब नहीं आते झोंके उदासी के
दर्द की फुहारें नहीं पड़तीं
नहीं जमतीं बादलों की परछाइयां   
बस अक्सर कसकती है एक पहचान
टीसता है एक परिचय
भर आती हैं ऑंखें
और ख़ाली हो जाता है मन .
        

Saturday, June 12, 2010

दोस्ती देने का नाम है -- तुमने कहा था


स्वप्न पलकों पर तिरा करते थे जो अक्सर ,
कदम थके-थके जो
बहक-बहक जाते थे
मुड़ने के लिए चलते-चलते,
पुरवा पवन वह ओस-भीगी
सिहरा जाती थी सीला मन जो,
रीत गये सभी
कहो तो क्यों !!

सिर पटक-पटक
जाती है बिखर लहर ,
फूट-फूट जाते हैं
इस पहाड़ी नदी के बुल्ले
कुछ देर कुलबुलाकर ,
देर तक पकड़ने की कोशिश
किया करती थीं तुम जिन्हें.

सांझ के पाखी लौटते तो हैं घर
झुण्ड-के-झुण्ड
पंख फडकाते पंक्तिबद्ध ,
पर लय खो-सी गयी लगती है.

पोखरी का जल ,
जिसे चुपचाप  भरते थे
अंजुरी में हर शाम हम-तुम ,
हो गया है गंभीर
कुछ  अधिक ही गंभीर ,
सूरज ढलने के बाद
हिल नहीं पड़ता है अक्सर
किसी  के मुस्कुरा भर देने से .

सर्ग शाकुंतलम के सभी
बांचे थे हमने एक साथ
छाँव में जिसकी ,
अमोला अल्हड वह अमलताश का
झूम नहीं उठता है अक्सर बेबात ही.

पढ़ ली होंगी तुमने कुछ किताबें और
सीख लिए होंगे कुछ और
तीन-पांच के धंधे ,
बढ़ गयी हो चमक आँखों की
नामुमकिन नहीं.
मुमकिन है, मिल गया हो
कन्धा कोई
रो लेने को सभी  दुःख ,
भोगे-अनभोगे यथार्थ के.

फिर भी सच यही है कि
तुमने की थी  दोस्ती मुझसे
और एक शाम यूँ ही
भाग्य-रेखा को मेरी
गोदते हुए दूब  की डंठल से
कह दिया था तुमने --
दोस्ती देने का नाम है.

लिया तो तुमने भी कुछ नहीं ,
मैं रिक्त हूँ
पर यह भी सत्य है .   

Tuesday, June 8, 2010

लील रहा है महानगर

मेरी परिभाषा में शामिल
पीपल , पोखर , धूल गांव की
काली , डीह , कराही - पियरी ,
कजरी , चैता , फाग , बिदेसिया ,
ताल, चिरैया ,पागल पुरवा ,
चौखट , पनघट , घूंघट , गागर,
साँझ ढले की दीया-बाती ,
पांव महावर छम-छम पायल ,
मुरली  , मूसल , जांता-चक्की ,
अक्कड़-बक्कड़,  ओल्हा-पाती,
राधा-मोहन-नन्द-यशोदा
धीरे-धीरे धूमिल होकर
खोते जाते महानगर में.

सबने मिलकर लिखा और मैं
कोशिश करता रहा स्वयं को
पढ़ पाऊं अपनी आँखों से
बिन पनियाये साफ-साफ .

कुछ नयी किताबें , नए विचार
सिद्धांत नए , सब तीन-पांच
विज्ञान, ज्ञान , कला , दर्शन ,
जीवन जीने के विविध ढंग
कुछ पुण्य-पाप , कुछ धर्म-अधर्म
सब राग-विराग , नरक-स्वर्ग
जाले-से उतरे आँखों में
मैं भूल गया वह भाषा , वह लिपि
जिसमें मुझको लिखा गया
जिसमें पला-बढ़ा-पलुहाया
जिससे मेरा कण-कण सिरजा
जिसने गढ़ा 'मुझे' , 'मेरा' , 'मैं'.

मैं , पानी पर पलता मनीप्लांट
अभिमान सभ्यता का पाले
पैरों में संस्कृति की बेडी
तैयार खड़ा बिक जाने को
मल्टीनेशनल - प्रोडक्ट-सा .

तन के , मन के , इस जीवन के
सारे बंधन , सारे क्रन्दन
छंद , ताल , लय और स्पंदन
तुलते एक तुला में केवल ---
किसको कितना लाभ हुआ !!

जैसे कोई वृक्ष कटा , जड़
बची रही गल-सड़ जाने को
ऐसे ही तन बेच दिया , मन
सड़ता जाता पल-प्रतिपल .
अंश-अंश कर
बूँद-बूँद भर
लील रहा है महानगर .
               

Friday, June 4, 2010

और सुनो अनु

मैं अब भी लिखता हूँ
तुम पर कवितायें , अनु
जबकि तुम सुनती हो
नवजात शिशु की सांसें
पति के सीने पर सिर रख.

मैं अब भी ढूंढता हूँ
तुम्हारे लिए उपमाएं ,
गढता हूँ टटके बिम्ब
और बनाता हूँ नए-नए अर्थ
तुम्हारे कहे उन्हीं पुराने शब्दों से .

मैं अब भी मोड़ता हूँ
पन्नों के कोने
बनाता हूँ दूब की पैतियाँ
खींचता हूँ किताबों पर रेखाएं
और पढ़ता हूँ तुम्हारा नाम .

गलत होवोगी तुम
यदि इसे प्रेम समझो
या फिर , प्रेम का नॉस्टेल्जिया.
यह हैंगओवर भी नहीं है
किसी अत्यन्त गहरे अनुभव का.
मित्र कहते हैं बूढ़ा हो रहा हूँ
पर मुझे लगता है, इसी बहाने   जीवित तो हूँ मैं !