Sunday, June 13, 2010

एक पूरा बरस : अधूरा समझौता

तुमने ठीक ही लिखा है--
न आने पायें उदासी के झोंके ,
फुहारें दर्द की न पड़ें सुबह-शाम,
आँखों में परछाइयाँ बादलों की
थमें केवल, जमें नहीं सावन में .

--- यह सब कुछ  चाहता हूँ  मैं भी
पर दोस्त,
एक  पूरा बरस होता है दो सावनों के बीच
तीन ------सौ------पैंसठ------दिन ,
एक पूरा पतझड़ ,
एक पूरा चिल्ला जाड़ा ,
एक पूरा धुआंसा फागुन ,
एक पूरा उदास वसंत,
एक अ-स्मरणीय शाम
एक अप्रत्याशित खबर
एक अधूरे समझौते की शुरुआत
और  एक पूरे सपने का अंत .

 इस अन्तराल के बाद
अब नहीं आते झोंके उदासी के
दर्द की फुहारें नहीं पड़तीं
नहीं जमतीं बादलों की परछाइयां   
बस अक्सर कसकती है एक पहचान
टीसता है एक परिचय
भर आती हैं ऑंखें
और ख़ाली हो जाता है मन .
        

12 comments:

  1. sundar prastuti

    http://iisanuii.blogspot.com/2010/06/blog-post_12.html

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  2. शानदार पोस्ट है...

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  3. नि:शब्द हो जाते हैं जी आपकी कविता पढ़कर।

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  4. जैसे उदासी को फ्रेम कर दिया हो! वाह !!
    कहाँ थे आप ? अभी तक क्यों नहीं पहुँचा यहाँ !

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  5. समय बदल देता है अर्थ बहुत सारी चीजॊं का !

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  6. गिरिजेश भईया ने पहुँचाया ! छिपे हुए थे आप..या हम ही विरम गए थे !
    खूबसूरत !

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  7. एक भावप्रणव कविता...
    पहली बार आई हूँ वो भी गिरिजेश जी ने रास्ता दिखाया ..
    आकर ख़ुशी हुई है...
    आपका धन्यवाद...

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  8. एक अंतराल के बाद टीसता नहीं है दर्द ...
    बस खाली ही हो जाता है मन ...
    सुन्दर ...!!

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  9. एक गलती हुई है मुझसे... मैं आपके ब्लॉग पर पहले भी आ चुकी हूँ बल्कि मेरी एक चर्चा में आपका भी ज़िक्र कर चुकी हूँ...
    मो सम कौन जी का धन्यवाद करती हूँ...

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  10. बहुत ही सुन्दर रचना!
    पढ़कर आनन्द आ गया!

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  11. क्‍या कहूं समझ में नहीं आता, मेरे पास शब्‍दों की कमी है ..... केवल इतना ही कि... बहुत अच्‍छा.... अति सुंदर ..... साधुवाद !

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