तुमने ठीक ही लिखा है--
न आने पायें उदासी के झोंके ,
फुहारें दर्द की न पड़ें सुबह-शाम,
आँखों में परछाइयाँ बादलों की
थमें केवल, जमें नहीं सावन में .
--- यह सब कुछ चाहता हूँ मैं भी
पर दोस्त,
एक पूरा बरस होता है दो सावनों के बीच
तीन ------सौ------पैंसठ------दिन ,
एक पूरा पतझड़ ,
एक पूरा चिल्ला जाड़ा ,
एक पूरा धुआंसा फागुन ,
एक पूरा उदास वसंत,
एक अ-स्मरणीय शाम
एक अप्रत्याशित खबर
एक अधूरे समझौते की शुरुआत
और एक पूरे सपने का अंत .
इस अन्तराल के बाद
अब नहीं आते झोंके उदासी के
दर्द की फुहारें नहीं पड़तीं
नहीं जमतीं बादलों की परछाइयां
बस अक्सर कसकती है एक पहचान
टीसता है एक परिचय
भर आती हैं ऑंखें
और ख़ाली हो जाता है मन .
Sunday, June 13, 2010
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kitnaa dard samete rachnaa
ReplyDeletesundar prastuti
ReplyDeletehttp://iisanuii.blogspot.com/2010/06/blog-post_12.html
शानदार पोस्ट है...
ReplyDeleteनि:शब्द हो जाते हैं जी आपकी कविता पढ़कर।
ReplyDeleteजैसे उदासी को फ्रेम कर दिया हो! वाह !!
ReplyDeleteकहाँ थे आप ? अभी तक क्यों नहीं पहुँचा यहाँ !
समय बदल देता है अर्थ बहुत सारी चीजॊं का !
ReplyDeleteगिरिजेश भईया ने पहुँचाया ! छिपे हुए थे आप..या हम ही विरम गए थे !
ReplyDeleteखूबसूरत !
एक भावप्रणव कविता...
ReplyDeleteपहली बार आई हूँ वो भी गिरिजेश जी ने रास्ता दिखाया ..
आकर ख़ुशी हुई है...
आपका धन्यवाद...
एक अंतराल के बाद टीसता नहीं है दर्द ...
ReplyDeleteबस खाली ही हो जाता है मन ...
सुन्दर ...!!
एक गलती हुई है मुझसे... मैं आपके ब्लॉग पर पहले भी आ चुकी हूँ बल्कि मेरी एक चर्चा में आपका भी ज़िक्र कर चुकी हूँ...
ReplyDeleteमो सम कौन जी का धन्यवाद करती हूँ...
बहुत ही सुन्दर रचना!
ReplyDeleteपढ़कर आनन्द आ गया!
क्या कहूं समझ में नहीं आता, मेरे पास शब्दों की कमी है ..... केवल इतना ही कि... बहुत अच्छा.... अति सुंदर ..... साधुवाद !
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