Tuesday, June 8, 2010

लील रहा है महानगर

मेरी परिभाषा में शामिल
पीपल , पोखर , धूल गांव की
काली , डीह , कराही - पियरी ,
कजरी , चैता , फाग , बिदेसिया ,
ताल, चिरैया ,पागल पुरवा ,
चौखट , पनघट , घूंघट , गागर,
साँझ ढले की दीया-बाती ,
पांव महावर छम-छम पायल ,
मुरली  , मूसल , जांता-चक्की ,
अक्कड़-बक्कड़,  ओल्हा-पाती,
राधा-मोहन-नन्द-यशोदा
धीरे-धीरे धूमिल होकर
खोते जाते महानगर में.

सबने मिलकर लिखा और मैं
कोशिश करता रहा स्वयं को
पढ़ पाऊं अपनी आँखों से
बिन पनियाये साफ-साफ .

कुछ नयी किताबें , नए विचार
सिद्धांत नए , सब तीन-पांच
विज्ञान, ज्ञान , कला , दर्शन ,
जीवन जीने के विविध ढंग
कुछ पुण्य-पाप , कुछ धर्म-अधर्म
सब राग-विराग , नरक-स्वर्ग
जाले-से उतरे आँखों में
मैं भूल गया वह भाषा , वह लिपि
जिसमें मुझको लिखा गया
जिसमें पला-बढ़ा-पलुहाया
जिससे मेरा कण-कण सिरजा
जिसने गढ़ा 'मुझे' , 'मेरा' , 'मैं'.

मैं , पानी पर पलता मनीप्लांट
अभिमान सभ्यता का पाले
पैरों में संस्कृति की बेडी
तैयार खड़ा बिक जाने को
मल्टीनेशनल - प्रोडक्ट-सा .

तन के , मन के , इस जीवन के
सारे बंधन , सारे क्रन्दन
छंद , ताल , लय और स्पंदन
तुलते एक तुला में केवल ---
किसको कितना लाभ हुआ !!

जैसे कोई वृक्ष कटा , जड़
बची रही गल-सड़ जाने को
ऐसे ही तन बेच दिया , मन
सड़ता जाता पल-प्रतिपल .
अंश-अंश कर
बूँद-बूँद भर
लील रहा है महानगर .
               

6 comments:

  1. जैसे कोई वृक्ष कटा , जड़
    बची रही गल-सड़ जाने को
    ऐसे ही तन बेच दिया , मन
    सड़ता जाता पल-प्रतिपल .
    अंश-अंश कर
    बूँद-बूँद भर
    लील रहा है महानगर .nice

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  2. पहला पैरा तो जैसे खोते जाते गाँव का पूरा ब्योरा ही है।

    सब तीन-पांच
    जाले-से उतरे आँखों में
    मैं भूल गया वह भाषा , वह लिपि
    जिसने गढ़ा 'मुझे' , 'मेरा' , 'मैं'.
    तैयार खड़ा बिक जाने को
    मल्टीनेशनल - प्रोडक्ट-सा .
    किसको कितना लाभ हुआ !!
    ऐसे ही तन बेच दिया , मन
    सड़ता जाता पल-प्रतिपल .


    सोचा कुछ पंक्तियों को चुन कर एक लघु रूप दे दूँ। ग़लत तो नहीं किया ?

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  3. "यही होता है तो ये होता क्यूं है ? "
    यही होना है तो फिर रोना क्यूं है ?

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  4. फ्रस्ट्रेशन भी इतनी लय में कैसे निकलता है ? लय स्वभाव है आपका !

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