Monday, August 23, 2010

राखियों की डोर- सी

राखियों  की डोर- सी पावन हैं  बहनें
 जो कलाई पर बँधा करती हैं  शुभ आशीष -सी ।
 गोद रखतीं  , पालती हैं
 पितृ बनकर , मात बनकर
 और चुभती भी कभी हैं
 डाँट बनकर , बात बनकर
जो खुली रहती हैं  हरदम
 स्नेह की ऐसी गठरियाँ
 थाम लेती हैं  दुखों  में
 मित्रता का हाथ बनकर
 पावन ऋचाएं  मन्त्र मनभावन हैं  बहनें
 जो दिशाओं  में  बसा करती हैं  शुभ आशीष -सी ।

Tuesday, August 10, 2010

बरसाती दोहे

काले बादल आ गए , पानी का घट साथ
जाने किसने क्या कहा, गीली हो गयी रात.

डूबी क्यारी धान की, पानी बढ़ा अपार
हंसिया बैठा सोचता , कैसे कटे कुआर .

धरती ने कल कर दिया, सूरज से परिहास
गुस्से में वह रूठकर , ले बैठा संन्यास .

हर पनघट से कह गयी , पुरवा यह सन्देश
धूप बिचारी जा रही , कुछ दिन को परदेश .

धानी चूनर दे गयी , धरती को बरसात
बादल भी दिल खोलकर , बरसा सारी रात.

संबंधों की डोर में , बंधा है सब संसार
बादल आया पाहुना , पपीहा करे पुकार .

वक़्त-वक़्त की बात है, अजब वक़्त की चाल
नदिया से मिलने चला , सूखा तुलसी ताल.

आदर्शों के देश में ,  संघर्षों की बात
चंदा की अठखेलियाँ ,  पानी भरी परात .

 

Saturday, August 7, 2010

अचानक यूँ ही

डायरी का पृष्ठ पलटा
और तुम्हारा नाम देखा
जो लिखा था स्वयं मैंने
स्नेह-भीगे क्षण किसी.

अक्षरों के घूम जाने
झूम-झट कर ठिठक जाने
घुंडियों के घूम-फिरकर
लौट आने , दूर जाने --
चढ़ाईयां चढ़ने-उतरने से जनित
श्रम-बिंदु जैसे
ऋजु किसी या वक्र रेखा के
तने मस्तक-शिखर पर
बिंदु बनकर बैठ जाने --
में  तुम्हीं ऐसा लगा ज्यों
देखती रहतीं मुझे
निर्निमेष अपलक नयन .

एक ही है शब्द लेकिन
तुम कभी हंसती हुई ,
लाज से बोझिल पलक
अश्रु  में भीगी कभी ,
देहरी पर दीप थामे
केश की छाया किये
हँस पड़ी कुछ सोचकर
ज्यों बात करते  आपसे ,
अनामिका  की गाँठ पर
अटकी  अंगूठी जड़े नयन 
रक्ताभ मुख हिलते अधर
ध्वनिहीन शब्द मुखरित हुआ मन .

कल्पनाओं के अनंत
लोक में आलोक बन
एक ध्वनि ले डोलता हूँ
शब्द से आगे जहाँ
अर्थ की संभावनाएं
जुड़ गयीं आकार से .

बढ़ हवा ने एकदम
मूंद दीं पलकें मेरी
चू पड़ा हूँ आँख से मैं
डायरी के पृष्ठ पर
और तुम्हारा नाम मुझमें
घुल रहा है बिंदु-बिंदु.