Sunday, March 24, 2013

हम नदी के द्वीप

हम नदी के द्वीप संग-संग
फिर भी कितनी दूर हैं

     बीच में जलधार निर्मल
     पद तले अविचल धरातल
     जोड़ता आकाश हमको
    शब्द टलमल चिर विकल

दूर हैं बस हाथ भर
जल-कमल के पात भर
साथ हैं मिलना नहीं
कुछ इस तरह मजबूर हैं

     तुम हँसे मैं चुप रहा
     दुःख मेरा तुम मौन हो
     दृष्टि में मोजूद लेकिन
     कौन जाने कौन हो

मन  अपरिचित तन अपरिचित
स्नेह-रीते प्रेम-वंचित
रिक्त अंचल रिक्तता का
धन लिए मगरूर हैं

     कौन जाने किसलिए यों
     रख गया ऐसे अलग
     चल न सकते पास आने
     के लिए हम एक पग

तुम बंधे मैं भी  बंधा                                                                                  
रज्जु ज्यों अपनी व्यथा
मुक्त होने की मगर हम
चाह से भरपूर हैं
हम नदी के द्वीप संग-संग
फिर भी कितनी दूर हैं .

Saturday, March 9, 2013

लतखोर टाइप का समय

लतखोर टाइप  का यह समय
सभ्य भाषा में नहीं लिखा जा सकता
मूत को मूत लिख देना
सौन्दर्यबोध का स्खलन हो सकता है
मगर मैं जानता हूँ उसकी बदबू
किसी भी दूसरे शब्द में देर तक नहीं रुक सकती

उपमेय उपमान उपमाएं सब शिथिल हैं
मर्दानगी के तमाम उपक्रमों के बावजूद
ओखली में धान की तरह कुटे शब्द
नहीं रह गए हैं उगने लायक

तुम जब भी कहते हो मेहनत
बाज़ार एनर्जी ड्रिंक चमकाता है
तुम कहते हो घाम 
छतरियों के रंग बिखेर दिए जाते हैं
मैं जानता हूँ तुम्हारे संघर्ष और धूप  कहने में
कही जाती है पसीने की गंध और रोटी और इज्ज़त
मगर समझा जाता है डेऑड़रेन्ट और सनस्क्रीन लोशन
यह शब्दों से संवेदनाओं के निकल जाने का समय है
यह बाज़ार के विस्तार का समय है .