Friday, July 27, 2012

... उम्मीद होती भी बेहया है !

गहगहाकर फूला है गुलमोहर
भभक्क लाल
बंद पड़ी फैक्ट्री के भीतर
टूटकर लटकती एस्बेस्टस शीट्स की आड़ में

खुशी पगार से इतर भी होती है
अगर चिमनियों से उठ रहा हो धुँआ
करने भर को हो काम
और हिक भर हो उम्मीद कल की

चिमनियों से धुँआ रुकने के साथ
रुक जाती है आँख में सपनों की उड़ान
रुक जाती हैं बच्चों की पढाइयां
और दवाइयाँ भी बुजुर्गों की

ट्रकों पर लदते सामान के साथ
लदते हैं बच्चों के जन्मदिन , विवाह और याराने
सबसे निचले हिस्से में निश्चिंतताओं के बगल
अपूर्ण जिम्मेदारियों के ठीक नीचे
दबे-दबे दुबके-दुबके

बंद हुई फैक्ट्रियों में रह जाते हैं
खुले दरवाजे वाले खाली होते मकान
 मकानों पर चिपके एविक्शन नोटिस
और भीतर कमरे की सबसे अच्छी दीवार पर
हरे-लाल रिबन से लिखा हैप्पी बर्थडे

गहगहाकर फूला है गुलमोहर
लाल भभक्क
कि जिंदगी ढूंढ लेती है
मुस्कुराने के नए बहाने
और उम्मीद होती भी बहुत बेहया है !

Saturday, July 14, 2012

ईश्वर , मैं तुम्हारे पक्ष में खड़ा हूँ

मैं छानता हूँ कविताएं
जैसे छानती है माँ स्वेटर सलाई पर
अपने अजन्मे बच्चे के लिए

मैं कागज़ पर लिखता हूँ पहली पंक्ति
बिल्कुल पहली हराई की तरह
बीज बोने से पहले गीले खेत में

मैं अँगुलियों में घुमाता हूँ शब्द
अनामिका में पहनी पैती की तरह
पूजा के संकल्प से पहले

मैं रचता हूँ वह अचम्भा
ठहरा है ऋचाओं में जो श्वान बनकर
सदानीराओं के दर्शन मात्र से

मैं पूरा होना चाहता हूँ छोड़कर
कुछ अर्थगर्भी शब्द अंखुआते हुए
नम ज़मीन में
जहाँ बच रही है गर्मी

शब्द भर कविता , आँख भर पानी
सांस भर उम्मीद और मुट्ठी भर आसमान
किसके दिए मिलता है किसीको

अपनी सभी असहमतियों के साथ
ईश्वर , मैं तुम्हारे पक्ष में खड़ा हूँ  .



Monday, July 2, 2012

बरसो असाढ बरसो

बरसो असाढ़ बरसो
तुम धार-धार बरसो
तुम बार-बार बरसो
बरसो असाढ़ बरसो

बरसो कि प्यास बाकी
बरसो उजास बाकी
इस जिंदगी की जंग में
बरसो कि आस बाकी
     बरसो असाढ़ बरसो

बरसो कि प्यास भीजे
बिरहिन की आस भीजे
यह खडखडी दुपहरी
बीते और सांस भीजे
     बरसो असाढ़ बरसो

बरसो कि खेत भीजे
बरसो कि रेत भीजे
सब भूत-प्रेत भीजे
सब सेंत-मेंत भीजे
    बरसो असाढ़ बरसो

आँचल का कोर भीजे
बांहों का जोर भीजे
मन का अंजोर भीजे
सब पोर-पोर भीजे
     बरसो असाढ़ बरसो

काली का थान भीजे
छप्पर-मचान भीजे
बड़का मकान भीजे
सब आन-बान भीजे
     बरसो असाढ़ बरसो

आँगन-दुआर भीजे
पनघट-इनार भीजे
कुक्कुर-सियार भीजे
सब कार-बार भीजे
     बरसो असाढ़ बरसो

बरसो कि बाग भीजे
पोखर-तड़ाग भीजे
कजरी का राग भीजे
धनिया का भाग भीजे
     बरसो असाढ़ बरसो

बरसो कि सब बदल दो
बदलेगा तुम दखल दो
सब सड़ गए सरोवर
हँसते हुए  कमल दो
     बरसो असाढ़ बरसो .   

Monday, June 25, 2012

रोटियां

तवे से उतरती रोटियां
चली नहीं जाती हैं अपने-आप
वहां जहां कि होती है भूख

बहुत मायने रखता है
उन हाथों का हुनर
जो तय करते हैं
भूख से रोटी का रिश्ता
और अनुपात भी

रोटी केवल भूख के लिए नहीं होती
नहीं होती जैसे कि ज़मीन
केवल रहने के लिए
या कि नहीं होता पानी
केवल पानी भर बनकर
सबके लिए
ज़रूरतों से तय नहीं होते
संभावनाओं के समीकरण उलझे हुए

वे हमेशा देवता ही रहते हैं
जो छिपाकर रख लेते हैं आग
रोटियां औज़ार हैं
जिनसे खुलते हैं सत्ताओं के जटिल समीकरण
महत्वाकांक्षाओं की शतरंजी बिसात पर .

Friday, June 1, 2012

तुम्हारा लौटाता हूँ प्यार

चलो तुम भूल गए सर्वस्व
मगर इतना तो होगा याद
बढ़ाकर मैंने अपना हाथ
सजाया था माथे पर चाँद

झपकना पलकों का तुम भूल
देखती रही थीं मेरी ओर
हुई आँखों-आँखों में बात
और कस गयी स्नेह की डोर

तुम्हारे नयनों से संवाद
मिली मन को मन की सौगात
फिसलती जाए पकड़ी डोर
संभाले नहीं संभलता गात

चले थे दो ही पग हम साथ
हो गयीं अपनी राहें दूर
किया है तुमने तो स्वीकार
मुझे पर हो कैसे  मंजूर

दिया है तुमने तो दिल खोल
लिया ही गया न मुझसे भार
ह्रदय में कसके जो वह टीस
नयन को आंसू का उपहार

मेरे कंधे पर रखकर शीश
दिया था तुमने ही  अधिकार
अधर से लिख देने का मीत
तुम्हारे अधरों पर निज प्यार

नहीं माना तुमको है याद
किया था तुमने मुझसे प्यार
कभी भीगी आँखों की कोर
रचा था सपनों का संसार

मगर मैं कैसे जाऊं भूल
मेरे जो जीवन का आधार
जहाँ स्थित मेरा अस्तित्व
करूँ कैसे उससे इनकार

कथा जो रही अधूरी आज
करूँ पूरी वह मेरी चाह
छिपाए रख न सकूँ अब और
अधर के मुस्काने में आह

रहो खुश तुमको मेरे दोस्त
समर्पित है मेरा उपहार
विदा की घड़ी तुम्हें लो आज
तुम्हारा लौटाता हूँ प्यार .


Sunday, May 27, 2012

ये उदासियाँ

ये उदासियाँ भी मेरे ही हिस्से आनी थीं
कि जैसे आती है
रात भर जागी हुई आँखों में नींद
और गंधाते पानी में मछलियों को सांस
बस जी लेने भर

उदास होना जीवित होना है
रोज़मर्रा की लंगडी दौड में
कि खराब होना अब भी खराब है
और गलत बिलकुल उतना ही गलत
न ज्यादा न कम सांस भर

उदासी आइना है
और सबूत भी
जीवित होने का.

Thursday, April 5, 2012

इंतज़ार का गीत

रात भर चांदनी बस तुम्हारे लिए
जुगनुओं की सजाती रही अल्पना
बिन बुलाए नयन नीर लेकर मेरे
द्वार आता रहा दर्द का पाहुना

     चूड़ियों से भरे हाथ सूने हुए
     रात आई ढली दर्द दूने हुए
     सारे पुरवा के झोंके उदासी भरे
     वेदना के रुपहले नमूने हुए

दीप-सा रात भर कोई जलता रहा
और सिसकती रही रात भर साधना

     पायलों को कसकती कहानी मिली
     पीर होंठों को कोई अजानी मिली
     गुनगुनाए महावर जिसे उम्र भर
     इंतज़ारों की कविता पुरानी मिली

गंध-सा रात भर कोई छलता रहा
और भटकती रही रात भर कामना । 

Saturday, March 3, 2012

यह वाद की खटिया उठाने का समय है

पड़ गए हैं उतान मुद्रा में
वाद की खटिया बिछाकर
कुछ विकट संभावनाशील प्रबुद्ध विचारक
अटक गयी है वायु
विकारवश
सिद्धांतों की सतत जुगाली से ।

क्या करें किस रीति निकले
फँस गयी है फाँस-सी जो गले में
हूक भरते , खेचरी मुद्रा बनाते
तानते हैं पाँव धनु की तान-सी
फिर डोलते हैं
दोलकों की लय में जैसे ,
क्रोध , फिर दुत्कार, अब दयनीयता है ।

क्या करें,  लाएं कहाँ से सांचे
हो सके जिसमें कि फिट यह आदमी
यह आदमी जो बोलता है सच
यह आदमी जो दर्द को दर्द कहता है
यह आदमी जो भूख में भी मुस्कुराता है
यह आदमी जो बस आदमी है
निपट नितांत बेलाग बस आदमी

क्या करें इसका कि कुछ हम-सा दिखे
क्या करें इसका कि कुछ बदनाम हो
क्या करें इसका कि कुछ कमज़ोर हो
क्या करें इसका कि कुछ संतप्त हो
कि अब तक की सभी सीखी हुई तरकीब से
यह बंध न पाया है किसी सिद्धांत में

यह वाद के खांचे से बाहर है अगर
यह टिप्पणी है हर तरह के वाद पर
यह रिजेक्शन है हरेक उस वाद का
जिसके लिए इन्सान बस औजार है

अतः संभलो , परम प्रबुद्ध विचारक !
जुगाली फिर कभी करना तुम सिद्धांत की
अब दर्द की खातिर दवाई ढूंढ़नी है
ढूँढना है प्रात अँधेरी रात का
यह वाद की खटिया पुरानी हो गयी
यह वाद की खटिया उठाने का समय है ।