Saturday, April 24, 2010

मैं बुद्ध नहीं हूँ

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मैं बुद्ध नहीं हूँ.
मेरे महाभिनिष्क्रमण और बुद्धत्त्व के  बीच
नहीं किसी सुजाता की खीर
शाक्यों का वैभव
कपिलवस्तु के प्राचीर ;
है तो सिर्फ
यशोधरा की पीर
शुद्धोदन का मोतियाबिंद
मायादेवी का गठिया
राहुल की किताबों का बोझ
और सिद्धार्थ अकेला है.

कोई सारनाथ या बोधगया नहीं
किराये का मकान
टपकती छत
उखड़ते प्लास्टर
कहने को घर
पर
नहीं छोड़ सकता
डोर नहीं तोड़ सकता
महाभिनिष्क्रमण बेमानी है
जब तक एक भी आंख में पानी है .
अश्रुपूरित नयनों के लिए
पनियाये सपनों के लिए
जीना होगा
हर सुकरात के हिस्से का प्याला
पीना होगा. 

Friday, April 16, 2010

देह की दुकानें

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दर्द उधार नहीं लेतीं
देह की दुकानें हैं
उसूल पर चलती हैं.

अनुसूया की मर्यादा
द्रोपदी की दृढ़ता और
सीता का सतीत्व
पुते हैं सब
लिपस्टिक की परतों में .

चमकदार झलर-मलर कपड़ों के भीतर
काजल से काले हैं
आगत  के डंक
भूत का भय
और घिनोनापन वर्तमान का.

गहरी रेखाएं गले की
खोह हैं गहरी ,
भूख बिलबिलाती है
बचपन से जहाँ.

नाभि-गह्वर से निकली
रोम-रेखा फैली कुचों तक
सिहरती है अक्सर
शरीर के सिहरने से --
छोटे-छोटे सपने हैं,
नन्हे-नन्हे सुख
कुछ अपने, कुछ अपनों के
तन-तन आते हैं
पूरने की आशा में .

अंग-अंग अपना
जो अपना नहीं भी है
जीता है एक-एक क्षण
दर्द नक़द लेकर .
पोर-पोर टीसता है
इतिहास सभ्यता का ,
पोर-पोर फूटता है
कोढ़ संस्कारों का .

लोथड़े में मांस के
ढूंढता है मांसपिंड
ऐसा कुछ अपरिचित
करता है पास जो
अपने कुछ और पास .

काग़ज़ के टुकड़ों में
मिलता है गोश्त सिर्फ
गोश्त बस गोश्त है.

देह के पार उतरती है देह
देह का तनाव सोखती है देह
मन पांचसाला बच्चे- सा
संभालता है अपनी टॉफियाँ, अपने खिलोने
जो अक्सर
मार खाने के बाद मिलते हैं .

देह की दुकानें
दर्द उधार नहीं लेतीं.
 


   

Friday, April 2, 2010

अलगनी पर टंगी औरतें

जम्फर , फरिया, ब्लाउज संग
सुबह से शाम तक
अलगनी पर टंगी रहती हैं
चिमटियों से दबी
कुछ साड़ियाँ .

गरमाई हवा में फडफडाती हैं
कभी धूप में, कभी छाँव में
सूखती हैं भाप देतीं
कड़क हो जाती हैं.

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
दीखती हैं , देखी  जाती हैं
नज़र-बेनज़र
दबे-छिपे , सरेआम
साल में तीन सौ पैंसठ दिन
दस...बीस...पचास...सत्तर साल
उजाले में, अंधेरे  में
लगातार.

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
अक्सर तहाती हैं चुपचाप
दिसंबर की ठंडाई साँझ-सी
परत-दर-परत;
फिर रख दी जाती हैं
पेटी,अलमारी या बिस्तर के सिरहाने-पैताने
किसी पाजामे,गमछे या लुंगी की बगल में.

कोरेपन से पोंछा बन जाने तक
बरस-दर-बरस गलती हैं
रंग......बेरंग......बदरंग ;
मसकती हैं
इधर,उधर ,चाहे जिधर से;
हुमकती हैं, रीझती  हैं, खीझती हैं
अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
बोलती नहीं हैं खुद से
केवल सुनती हैं दूसरों की आवाज़ .

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
अक्सर फडफडाती हैं
पर अलगनी छोड़कर नहीं जातीं
अपने-आप
टंगी रहती हैं लगातार
दस.....बीस....पचास....सत्तर साल.

(साड़ियों की जगह औरतें पढ़ें)