Friday, February 25, 2011

सो जा री सो जा राजदुलारी !

चाँद का खिलौना है सांझ की अटारी
खेलेगी झूम-झूम बिटिया हमारी
सो जा री सो जा राजदुलारी

नींद दूर रहती है परियों के देश
जा ले जा पुरवा री जल्दी सन्देश
देर करे काहे तू जल्दी से जा री
बिटिया की अंखियों में नींद की खुमारी
सो जा री सो जा राजदुलारी

चांदी-सी चांदनी फूल-सा बिछोना
मोती-सी अंखियों में सोने-सा सपना
आयेगी निंदिया चढ़ गीत की सवारी
बिटिया की अंखियों में नींद की खुमारी
सो जा री सो जा राजदुलारी

नाना की सोनजुही नानी की मैना
दादी के नयनों की दिन और रैना
बाबा की गीत ग़ज़ल छंद कविता री
बिटिया की अंखियों में नींद की खुमारी
सो जा री सो जा राजदुलारी .

Sunday, February 20, 2011

ज़िन्दगी

वक़्त की आँधियों में पली ज़िन्दगी
राह  काँटों की हरदम चली ज़िन्दगी
स्वप्न देखे अमरता के लाखों मगर
धूप के साथ हर दिन ढली ज़िन्दगी

     आँख आंसू भरी होंठ हँसते रहे
     उम्र बढती रही पाश कसते रहे
     एक एहसास ख़ाली हथेली का और
     दौड़ में हासिलों के हम फंसते रहे

हर घड़ी एक मुखौटा लगाये रही
नाटकों की तरह हो चली ज़िन्दगी

     एक सुहानी सुबह की सुखद आस ले
     धुंधली राहों का धुंधला-सा एहसास ले
    रोज़ बढ़ते रहे हम कदम-दर-कदम
    और बढ़ते रहे हर कदम फासले

राह मंजिल हुई साथ चलती रही
और क्षितिज ने हमेशा छली ज़िन्दगी

     एक नदी की रवानी कदम में लिए
     उम्र भर हम किनारों के जैसे जिए
     लाख चाहा कि लहरों को बांधें मगर
     एक छुवन को भी ताउम्र तरसा किये

बांधते छोड़ते कट गयी यह  उमर
और कितना जिए मनचली ज़िन्दगी.





Thursday, February 10, 2011

...अचीन्हे नयन

तुम न देखो मुझे यूँ  अचीन्हे नयन
मैं स्वयं के लिए शाप हो जाऊँगा
मैं तुम्हारे लिए पुण्य करता रहा
आज टूटा अगर, पाप हो जाऊँगा

     नाम जिसको कभी कोई दे न सका
     नेह से भी बड़ा एक नाता रहा
     बंध तोड़े सभी मैंने अनुबंध के
     और प्रतारण नमित-शीश पाता रहा

मौन मन की न खोलीं अगर गुत्थियाँ
पीर के मन्त्र का जाप हो जाऊँगा

     अब भी बाकी बहुत कुछ रहा अविजित
     मेरे जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष में
     देह के दायरे टूट पाए नहीं
     सारे उत्कर्ष में सारे अपकर्ष में

तुमसे कहकर हृदय की समूची व्यथा
आज मैं रिक्त-संताप हो जाऊँगा.

Sunday, February 6, 2011

कुछ और दोहे

बेटी की डोली उठी  सूना आंगन-द्वार
पीपल रोया रो पड़ा  बूढ़ा हरसिंगार .

दोपहरी थी कर रही  पनघट पर विश्राम
आँचल पर तब लिख गया फागुन अपना नाम.

तन मेरा फागुन हुआ  मन मेरा आषाढ़
बंधन टूटे देह के  ऐसी आई बाढ़ .

संध्या बैठी घाट पर  थककर श्रम से चूर
नटखट सूरज मांग में  भरने लगा सिँदूर .

पनघट से कल कह गयी  पायल मन की बात-
ख़त आया परदेश से  जागी सारी रात.

इन्सां कैसे मर सके  ढूंढ  रहे तरकीब
कंकरीट से त्रस्त है  मिट्टी की तहजीब .