Monday, September 13, 2010

थकी-थकी निगाह

थकी-थकी निगाह ने बता दिया है ये हमें
कि देखते रहे हो तुम स्वप्न कोई रात भर
देहरी पर दीप रख मुड़ के चल दिया कोई
और संग ले गया मन भी अपने बांधकर .

बन्द मुट्ठियों से कल
फिसल गयी किरन कोई
हवा बहा के ले गयी
धुला परागकण कोई

अटक गए हो बस उसी हवा के तुम ख्याल में 
नयन-जड़ी ज्यों मुद्रिका अनामिका की गाँठ पर .

दिन चढ़ा तो धुल गयी
लालिमा अंजोर की
हो गयी विलीन भी
गंध मंद भोर की

दिन चढ़े की धूप मन में रख गयी अकेलापन
रखा ज्यों रिक्त देव-गृह में दीपदान मांजकर . 

6 comments:

  1. बहुत दिन बाद कविता जईसा कविता पढने को मिला..मन खुस हो गया.. लगा जैसे कोई मधुर गीत उतर कर आ गया है आँगन में..

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  2. "दिन चढ़ा तो धुल गयी
    लालिमा अंजोर की
    हो गयी विलीन भी
    गंध मंद भोर की"

    अंतस में उतर जाती हैं आपकी पंक्तियाँ।

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  3. अच्छी कविता लगी. रखा जो रिक्त देव-गृह में दीपदान मांजकर जैसे प्रयोग आजकल कहाँ देखने में मिलते हैं. आज एक अच्छे कवि से परिचय हुआ.

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  4. शीतल बयार है आपका लिखना...

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  5. रखा ज्यों रिक्त देव-गृह में दीपदान मांजकर .puuri kavita YAHI hai...

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  6. अद्बुत ! इतना कहकर निकल लेने दीजिए !

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