Monday, August 23, 2010

राखियों की डोर- सी

राखियों  की डोर- सी पावन हैं  बहनें
 जो कलाई पर बँधा करती हैं  शुभ आशीष -सी ।
 गोद रखतीं  , पालती हैं
 पितृ बनकर , मात बनकर
 और चुभती भी कभी हैं
 डाँट बनकर , बात बनकर
जो खुली रहती हैं  हरदम
 स्नेह की ऐसी गठरियाँ
 थाम लेती हैं  दुखों  में
 मित्रता का हाथ बनकर
 पावन ऋचाएं  मन्त्र मनभावन हैं  बहनें
 जो दिशाओं  में  बसा करती हैं  शुभ आशीष -सी ।

6 comments:

  1. "पावन ऋचाएँ मन्त्र मनभावन हैँ बहनेँ
    जो दिशाओँ मेँ बसा करती हैँ शुभ आशीष-सी ।"

    इन पंक्तियों को महसूस कर रहा हूँ ....संवेदित है मन !

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  2. ँ और ं में अंतर है। कृपया सुधार करें।

    बस 4 पंक्तियों में आप ने बहनापे का पूरा बयान ही कह डाला।
    भर आया हूँ बन्धु!

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  3. कहाँ थे बंधुवर आप!! और लौटे हैं त एकदम धमाकेदार इस्टाइल में.. जेतना छोटा मगर मजबूत राखी का धागा, ओतने छोटा और गहरा आपका अभिब्यक्ति! रजनी कांत जी बहुत सुंदर!!

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  4. बेहद सुन्दर रचना.

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