Saturday, August 7, 2010

अचानक यूँ ही

डायरी का पृष्ठ पलटा
और तुम्हारा नाम देखा
जो लिखा था स्वयं मैंने
स्नेह-भीगे क्षण किसी.

अक्षरों के घूम जाने
झूम-झट कर ठिठक जाने
घुंडियों के घूम-फिरकर
लौट आने , दूर जाने --
चढ़ाईयां चढ़ने-उतरने से जनित
श्रम-बिंदु जैसे
ऋजु किसी या वक्र रेखा के
तने मस्तक-शिखर पर
बिंदु बनकर बैठ जाने --
में  तुम्हीं ऐसा लगा ज्यों
देखती रहतीं मुझे
निर्निमेष अपलक नयन .

एक ही है शब्द लेकिन
तुम कभी हंसती हुई ,
लाज से बोझिल पलक
अश्रु  में भीगी कभी ,
देहरी पर दीप थामे
केश की छाया किये
हँस पड़ी कुछ सोचकर
ज्यों बात करते  आपसे ,
अनामिका  की गाँठ पर
अटकी  अंगूठी जड़े नयन 
रक्ताभ मुख हिलते अधर
ध्वनिहीन शब्द मुखरित हुआ मन .

कल्पनाओं के अनंत
लोक में आलोक बन
एक ध्वनि ले डोलता हूँ
शब्द से आगे जहाँ
अर्थ की संभावनाएं
जुड़ गयीं आकार से .

बढ़ हवा ने एकदम
मूंद दीं पलकें मेरी
चू पड़ा हूँ आँख से मैं
डायरी के पृष्ठ पर
और तुम्हारा नाम मुझमें
घुल रहा है बिंदु-बिंदु.

4 comments:

  1. कल्पनाओं के अनंत लोक में ...
    एक ही शब्द कितने रूप बदल कर आता है ना ...
    और चू पड़ती हैं बूँदें ...
    जहाँ एक शब्द के आगे कितनी संभावनाएं है ...

    सुन्दर ...अतिसुन्दर ...!

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  2. रजनी कांत जी एगो नाम के साथ पूरा फ्लैस बैक में कहानी को जी जाने का अनुभव हो रहा है. अऊर अखिरी पंक्ति तक आते आते त सब पसर गया... धुंधला अक्षर धुंधला नाम.. बहुत सम्वेदन्सील रचना...

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