डायरी का पृष्ठ पलटा
और तुम्हारा नाम देखा
जो लिखा था स्वयं मैंने
स्नेह-भीगे क्षण किसी.
अक्षरों के घूम जाने
झूम-झट कर ठिठक जाने
घुंडियों के घूम-फिरकर
लौट आने , दूर जाने --
चढ़ाईयां चढ़ने-उतरने से जनित
श्रम-बिंदु जैसे
ऋजु किसी या वक्र रेखा के
तने मस्तक-शिखर पर
बिंदु बनकर बैठ जाने --
में तुम्हीं ऐसा लगा ज्यों
देखती रहतीं मुझे
निर्निमेष अपलक नयन .
एक ही है शब्द लेकिन
तुम कभी हंसती हुई ,
लाज से बोझिल पलक
अश्रु में भीगी कभी ,
देहरी पर दीप थामे
केश की छाया किये
हँस पड़ी कुछ सोचकर
ज्यों बात करते आपसे ,
अनामिका की गाँठ पर
अटकी अंगूठी जड़े नयन
रक्ताभ मुख हिलते अधर
ध्वनिहीन शब्द मुखरित हुआ मन .
कल्पनाओं के अनंत
लोक में आलोक बन
एक ध्वनि ले डोलता हूँ
शब्द से आगे जहाँ
अर्थ की संभावनाएं
जुड़ गयीं आकार से .
बढ़ हवा ने एकदम
मूंद दीं पलकें मेरी
चू पड़ा हूँ आँख से मैं
डायरी के पृष्ठ पर
और तुम्हारा नाम मुझमें
घुल रहा है बिंदु-बिंदु.
Saturday, August 7, 2010
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कल्पनाओं के अनंत लोक में ...
ReplyDeleteएक ही शब्द कितने रूप बदल कर आता है ना ...
और चू पड़ती हैं बूँदें ...
जहाँ एक शब्द के आगे कितनी संभावनाएं है ...
सुन्दर ...अतिसुन्दर ...!
bahut khoob
ReplyDeleteरजनी कांत जी एगो नाम के साथ पूरा फ्लैस बैक में कहानी को जी जाने का अनुभव हो रहा है. अऊर अखिरी पंक्ति तक आते आते त सब पसर गया... धुंधला अक्षर धुंधला नाम.. बहुत सम्वेदन्सील रचना...
ReplyDeletebahut bahut khubsurat
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