छूटना हमेशा ट्रेन की तरह नहीं होता
दौड़ते-दौड़ते, भागते-भागते
पटरी-दर-पटरी, सिग्नल-दर-सिग्नल
बदहवास
सब छोड़ देने की कोशिश में.
छूटना हमेशा केंचुल की तरह भी नहीं होता
धीरे-धीरे, रेंगते-रेंगते, सरकते
कुछ फर्क नहीं पड़ता जिससे
नयी-पुरानी खाल साथ-साथ
एक-दुसरे से जुड़ी-जुड़ी
लिथड़ती-लिथड़ती
छूटना केवल छूटने-सा होता है
जब डूब जाती है ज़मीन
डूब जाता है हौंसला
डूब जाती है अपने होने की हनक
बाँध की बढती ऊंचाई में
पानी के पसरते आयतन में
और मॉल की चकाचौंध रौशनी में
जब गर्दन पर रखा हो
भारी-भरकम पैर
और कहा जाता हो
साँस लो जोर से
और जोर से हँसते हुए
दूर टंगे मुआवज़े के
ऑक्सीजन सिलिंडर को देखकर
तब आप ही कहें
छूटना कैसा होता है
अपनी ज़मीन से...
निश्चित ही बहुत ही कठिन होता होगा ! क्योंकि वह जमीन कहीं न कहीं अपने होने की हनक से जुड़ी हुयी है !
ReplyDeleteछूटना अपनी जमीन से ...
ReplyDeleteवाकई बहुत कठिन !
ज़मीन से छूटने की पीड़ा आप बखूबी बयाँ कर गए.......
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना..
आपका आभार..
सच में अपने धरातल से छूटकर एक नई दुनिया में जाना कठिन तो है और कई बार यह छूटना न छूटना अपने हाथ में नहीं होता।
ReplyDeleteभावनाओं से भरी रचना. उम्दा सोच है... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजब डूब जाती है अपने होने की हनक…तब छूटना होता है
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