-- रेत का एक कण
सीप के अंतर में अटका
टटका पीड़ा का एक ज्वार
किये है आप्लावित सम्पूर्ण अस्तित्व .
-- रेत का एक कण
सूरज की किरणों में चमका
ठमका श्वान ऋचाओं में
लीलता देवताओं को .
-- रेत का एक कण
गदराई हथेली पर चिपका
लपका मुख की ओर
रुक गया समय
पा लिया कुछ नया.
-- रेत का एक कण
कसकता है अन्तर्तम में
आज बेचैन है कोई
कविता के जन्म लेने-सी
मूक बेचैनी.
Tuesday, October 19, 2010
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दृष्टि और अभिव्यक्ति की नवीनता इस कविता की ही नहीं, इस ब्लॉग की विशेषता है।
ReplyDeleteएक रेत कण ने कितने विचार स्फुल्लिंग चमका दिए!
बा भाई बाह आप का जवाब नहीं -
ReplyDeleteरेत का कण एक बदसूरत वजूद की खुबसूरत आत्मकथा भी है , है न ?
कविता के जन्म पर आपकी यह थेसिस भी भा गयी !
रेत का एक कण
ReplyDeleteकसकता है अन्तर्तम में
आज बेचैन है कोई
कविता के जन्म लेने-सी
मूक बेचैनी...
एक अकेले रेत के कण में कितने विचार , कितने बिम्ब ...!