Tuesday, October 19, 2010

आज बेचैन है कोई

-- रेत का एक कण
सीप के अंतर में अटका
टटका पीड़ा का एक ज्वार
किये है आप्लावित सम्पूर्ण अस्तित्व .

-- रेत का एक कण
सूरज की किरणों में चमका
ठमका श्वान ऋचाओं में
लीलता देवताओं को .

-- रेत  का एक कण 
गदराई हथेली पर चिपका
लपका मुख की ओर
रुक गया समय
पा लिया कुछ नया.

-- रेत का एक कण
कसकता है अन्तर्तम में
आज बेचैन है कोई
कविता के जन्म लेने-सी 
मूक बेचैनी.

3 comments:

  1. दृष्टि और अभिव्यक्ति की नवीनता इस कविता की ही नहीं, इस ब्लॉग की विशेषता है।
    एक रेत कण ने कितने विचार स्फुल्लिंग चमका दिए!

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  2. बा भाई बाह आप का जवाब नहीं -
    रेत का कण एक बदसूरत वजूद की खुबसूरत आत्मकथा भी है , है न ?
    कविता के जन्म पर आपकी यह थेसिस भी भा गयी !

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  3. रेत का एक कण
    कसकता है अन्तर्तम में
    आज बेचैन है कोई
    कविता के जन्म लेने-सी
    मूक बेचैनी...

    एक अकेले रेत के कण में कितने विचार , कितने बिम्ब ...!

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