कुछ प्रश्न होते ही इसलिए हैं कि उनका कोई जवाब न दिया जाए
मैं भी एक प्रश्न हूँ
खुद से ही टकराता हूँ , खुद को झिंझोड़ता हूँ टूटने की हद तक
खुद से ही टकराता हूँ , खुद को झिंझोड़ता हूँ टूटने की हद तक
फिर कसक कर रह जाता हूँ, मन में पड़ी दरारों को गिनते हुए
जवाब बन जाने की कोशिश में.
'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना'-- ग़ालिब ने कहा था.
पर जहाँ कोई हद ही न हो, वहां ? उम्र भर बीमार बन फिरते ही रहना है ?
दीप सबने जलाये थे किसी को याद कर
एक-एककर रख दिया था फिर कमल के पात पर
दूर तक बहते गए थे झिलमिलाते चाँद-से
मन सभी का ले गए थे बातियों में पूरकर
एक दीप , बस एक रह गया था तीर पर , चुपचाप जलता निर्निमेष.
सबने देखा वह मेरा था--
आखिर लौट कर घर भी तो जाना था अँधेरी रात में !
अड़हुल फूले हैं देवी की जिह्वा-से , नवरात्र है ना !
एक मैंने भी छूकर धीरे से ले दिया तुम्हारा नाम
शाम और सघन हो आई चुपचाप अमर्ष से.
दूब के माथे पर उतरी हैं शबनम की सतरंगी टोलियाँ
दिन चढ़े तक रुकेंगी फिर एक-एककर लौट जाएँगी दुबारा आने के लिए
मैं रोज देखता हूँ विदा होती शबनम की सतरंगी टोलियाँ
रोज रखता है दिन चढ़े कोई मेरे कंधे पर हाथ-- किसका इंतज़ार है?
तुम तो जानती ही हो, कुछ प्रश्न होते ही इसलिए हैं कि उनका कोई जवाब न दिया जाये.
@ एक दीप , बस एक रह गया था तीर पर , चुपचाप जलता निर्निमेष.
ReplyDeleteसबने देखा वह मेरा था--
आखिर लौट कर घर भी तो जाना था अँधेरी रात में !
अड़हुल फूले हैं देवी की जिह्वा-से , नवरात्र है ना !
एक मैंने भी छूकर धीरे से ले दिया तुम्हारा नाम
शाम और सघन हो आई चुपचाप अमर्ष से.
दूब के माथे पर उतरी हैं शबनम की सतरंगी टोलियाँ
दिन चढ़े तक रुकेंगी फिर एक-एककर लौट जाएँगी दुबारा आने के लिए
मैं रोज देखता हूँ विदा होती शबनम की सतरंगी टोलियाँ
रोज रखता है दिन चढ़े कोई मेरे कंधे पर हाथ-- किसका इंतज़ार है?
तुम तो जानती ही हो, कुछ प्रश्न होते ही इसलिए हैं कि उनका कोई जवाब न दिया जाये.
___________________________
अनुभूतियाँ कभी कभी चुप कर देती हैं। धर्मसमधा देवी मन्दिर के चारो ओर फैले सरोवरों के घाट पर संध्या समय बैठ डूबते सूरज और फिर इक्के दुक्के दीपों को पानी में पैर डाले निहारना याद आ गया।
@
दीप सबने जलाये थे किसी को याद कर
एक-एककर रख दिया था फिर कमल के पात पर
दूर तक बहते गए थे झिलमिलाते चाँद-से
मन सभी का ले गए थे बातियों में पूरकर
कमाल का बिम्ब है!
@ एक मैंने भी छूकर धीरे से ले दिया तुम्हारा नाम
ReplyDeleteशाम और सघन हो आई चुपचाप अमर्ष से..
कुछ प्रश्न इसलिए ही होते हैं कि उनके जवाब दिया नहीं जा सके ...
अब इसके बाद कोई सवाल हो भी तो कैसे ...
फिर भी सवाल तो है ...मौन की अथाह गहरायिओं में दम तोड़ता -सा
बहुत दिन के बाद आपका कोई कविता मिला है पढने को..लेकिन अईसा अईसा प्रतीक आप इस्तेमाल किए हैं कि कविता का सिल्प देखकर चकित हो गए हैं हम.. हमरे मौन को सम्बाद समझिए... अऊर सुइकारिए हमरा नमन.. नवरात्रि में आप सरस्वती पूजन का अनुभव दे दिए!!
ReplyDelete"तुम तो जानती ही हो, कुछ प्रश्न होते ही इसलिए हैं कि उनका कोई जवाब न दिया जाये."
ReplyDeleteक्या जवाब है ? कोई ऐसा जवाब जो दिया जा सके ? शायद नहीं.
ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं--
दूब के माथे पर उतरी हैं शबनम की सतरंगी टोलियाँ
दिन चढ़े तक रुकेंगी फिर एक-एककर लौट जाएँगी दुबारा आने के लिए
मैं रोज देखता हूँ विदा होती शबनम की सतरंगी टोलियाँ
रोज रखता है दिन चढ़े कोई मेरे कंधे पर हाथ-- किसका इंतज़ार है?
बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteपर जहाँ कोई हद ही न हो, वहां ? उम्र भर बीमार बन फिरते ही रहना है ?
ReplyDeleteएक दीप , बस एक रह गया था तीर पर , चुपचाप जलता निर्निमेष.
हम चाहते हैं जानी साथ रहें, आपकी रचना प्रक्रिया ,बस कुछ मत पूछिये सीधे जिगर में पैबस्त हुयी जाती है