फूलते शहर भूल जाते हैं चेहरे
संकराती सड़कें चीखती हैं रिक्शों के स्वर में
और साथ-साथ चीखता है भोलाराम--
'बाबूजी बचके' 'किनारे भईया'
'देखके भाई' 'बढ़ाके राजा' .
तीन पहिये रिक्शे के
चौथा भोलाराम रिक्शावान
घूमते हैं लयबद्ध, चक्राकार
उखड़ती हैं, घिसती हैं टायर की परतें
धीरे-धीरे जंग खाता है चेन का इस्पात
फूलती हैं पांव की नसें
धौंकनी-से फूलते हैं फेफड़े
इंच-इंच गलता है भोलाराम.
छोटा-सा गाँव एक
बिलासपुर-पूर्णिया कहीं भी
माटी का घर , छप्पर
दीवार पर हैं गेरू से बने चित्र
बच्चों-से दो छोटे-छोटे बच्चे
बुझे हुए हुक्के की राख-सा बाप
कोलिअरी में नौकर था जवानी में
बीवी- सी बीवी
महुए का हलवा बनाती है अच्छा
काढ लेती है तकिये पर फूल
काटती है बाबू साहब के खेतों पर धान
छींट की साडी पहनकर.
दूर गाँव में
नात भी हैं कुछ, भाई-बिरादर भी
जुटते हैं छठे-छमासे कार-परोज में
अकेला नहीं है भोलाराम
रिक्शे के पहियों-से पहिये
कई हैं जिंदगी में उसकी
घूमते हैं, घुमाते हैं, चलाते हैं
चलती है गाड़ी सहारे जिनके.
कागजों में कागज़-- मनीऑर्डर फॉर्म
बखूबी पहचानता है भोलाराम
अंगूठा नहीं लगाता दस्तखत करता है
अक्सर गड़बड़ कर जाता है
भालोराम या भालारोम लिख जाता है
वर्ष में बारह मनीऑर्डर बेनागा
कभी हज़ार पूरा, कभी कम कभी कुछ ज्यादा
मेहनत की कमाई बचाता है
एक टाइम खाता है
हफ्ते में एकाध दिन पौआ तो चलता है.
भोलाराम उसूल का पक्का है
बेकार खिच-खिच पसंद नहीं
किराया पहले तय कर चलता है
शहर के इस छोर से उस छोर
नदी इस पार से नदी उस ओर
सुबह हो या कि शाम
ख़ास दिन हो या कि आम
सर्दी-बरखा-घाम
चलता है भोलाराम.
आदमी दिल का अच्छा है
सिद्धांत का सच्चा है
उसकी पार्टी -- कमनिस्ट पार्टी
कांग्रेस --बेकार पार्टी,
भाजपा --लबार पार्टी
नारा जानता है
हरवंश बाबू को नेता मानता है--
जिमदार आदमी हैं,
परजा का खियाल रखते हैं
पंद्रह अगस्त को खद्दर पहनते हैं
एक मई को हड़ताल रखते हैं.
भोलाराम जानता है
सर्वहारा के दुश्मनों को पहचानता है
समय बदल रहा है
बदलाव का दौर चल रहा है
संघर्ष होता है, लाल फूल खिलता है
अधिकार छीनने से मिलता है
बिना मांगे तो किराया भी नहीं देते .
भोलाराम ढोता है किसिम-किसिम की सवारियां
पुरुष, बच्चे , बूढ़े , नारियां , क्वांरियां
भारी भी हलकी भी
बोझिल भी कडकी भी
कुछ साहबनुमा होते हैं
कुछ चुपचाप नहीं बैठते
अपना दुखड़ा रोते हैं
ब्याह को ढोते जोड़े
रास्ते भर झगड़ते हैं
बिनब्याहे प्रेमी-प्रेमिका
हाथ छोड़ते-पकड़ते हैं
भोलाराम सब जानता है
सवारी का मिज़ाज पहचानता है
सिनेमाहाल की सवारी गुनगुनाती है
स्टेशन की जल्दी मचाती है
श्मशान की सवारी मातमी सूरत
मंदिर की सवारी बेज़रूरत
होस्पिटल की सवारी कुनमुनाती है
नयी सवारी चकपकाती है
बच्चा उछलके बैठता है
बूढ़ा संभलके बैठता है
पुराने सेठ पसरके बैठते हैं
नए-नए ज़रा अकडके बैठते हैं
दफ्तर के बाबू पकडके बैठते हैं
भोलाराम सवारी की नस-नस पहचानता है
पैसे कौन कैसे देगा यह भी जानता है
उतरने के पहले
पुराना सेठ पैसे निकाल लेता है
बाबू जेब में हाथ डाल लेता है
लड़कियां कनखियों से नज़र फेंकती हैं
उम्रदराज़ महिलाएं पर्स देखती हैं
शहरी नवधा खटाक से पर्स खोलता है
बूढ़ा गंवार लांग टटोलता है
बाबू क्लास पैसा देने में झिक-झिक करता है
शराबी हर बार दिक करता है.
भोलाराम शहर की गली-गली जानता है
हर चौराहा, नुक्कड़, बाज़ार पहचानता है--
कहाँ-कहाँ चाट खानेवालियाँ जुटती हैं
किस सिनेमा पर नयी-नवेलियाँ जुटती हैं
मम्मीनुमा महिलाएं
चहचहाती आधुनिकाएं
सर्दी में स्वेटर
गर्मी में शर्ट और नेकर
अक्सर नक़द देकर
कहाँ तोलती हैं मोलती हैं खरीदती हैं
हंसती हैं खीझती हैं रीझती हैं;
कौन डाक्टर पुरुषों का है कौन महिलाओं का
कौन हड्डी का है कौन फोड़े का, घावों का;
भोलाराम जानता है
कौन दफ्तर काम बेचता है
किस गली के किस नुक्कड़ का
कौन सा पनवाड़ी जाम बेचता है;
शहर की बदनाम बस्ती
वेश्याएं महँगी और सस्ती
कहाँ मिलती हैं
कैसे मुरझाती हैं, खिलती हैं
कैसे पटाती हैं, पटती हैं
पुलिसवालों से पिटती हैं;
भोलाराम को सब पाता है
कहाँ पंजाब है कहाँ कलकता है
कौन सी ट्रेन कब आएगी
दिल्ली, अम्बाला, पटना कहाँ ले जायेगी ;
कोढियों-भिखारियों की बस्ती कहाँ है
सोने-चांदी की चीज़ सस्ती कहाँ है
कौन सी बिल्डिंग कब खड़ी हुई
कोतवाली की नीम कब बड़ी हुई
-- भोलाराम शहर के गाइड-सा
शब्दों की स्लाइड -सा
सब कुछ बताता है
शहर से परिचय कराता है.
भोलाराम आदमी नहीं सपना है
एक शाश्वत सफ़र है
दर्द है, हंसी है, तड़पना है
शहर की नसों में खून है
मरजाद है, जीने का जुनून है;
घिसते हैं टायरों के साथ-साथ
वर्ष-दर-वर्ष ज़िन्दगी के
भोलाराम का जीवन ख़त्म नहीं होता
बर्स्ट हो जाता है एक दिन चलते-चलते
और शहर इस्पाती रिम-सा
नया भोलाराम चढ़ा लेता है.
Friday, October 1, 2010
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विषय बहुत अच्छा चुना है ...लेकिन कविता की दृष्टि से लम्बाई कुछ ज्यादा लगी ...
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति
भोलाराम आदमी नहीं है.......,
ReplyDeleteसही में वो तो शहर का एनसाईक्लोपीडिया है\ लेकिन आदमी वो भी नहीं है जो माल में जाकर सौ रुपये की चीज के दो सौ चुकाते हैं और रिक्शावाले को दस की जगह आठ थमाते हैं, वो हैवान हैं।
रजनीकांत जी, आज तो आप पूरा स्लाईड शो देखा दिए सहर का भोलाराम के नज़र से...पूरा नज़ारा गुजर गया सामने से...डॉक्यूमेंटरी फिलिम के तरह!!
ReplyDeleteभोलाराम एक युग है जो उस युग में रह कर ही महसूसना होता है, इतिहास सब सही नहीं बताता...आपकी कविता जीती है भोला को...आपके पाठक भी.
ReplyDeleteआपकी नज़र का कायल हूं ।
ReplyDeleteएक पूरी ज़िन्दगी, एक पूरी यात्रा ।
अंत की पंक्तियां खूब तडपाती/सहमाती हैं -
"भोलाराम आदमी नहीं सपना है
एक शाश्वत सफ़र है
दर्द है, हंसी है, तड़पना है
--------------------
भोलाराम का जीवन ख़त्म नहीं होता
बर्स्ट हो जाता है एक दिन चलते-चलते ..."
खैर भोलाराम के रिक्शे की सवारी आपके माध्यम से हमने भी कर ही ली.. भोलाराम न हुआ शहर का अखबार हो गया..मोचीराम का यार हो गया..
ReplyDeleteसमाधान क्या है ?
सुन्दरतम शब्द-विन्यास के साथ, ट्रेन जितनी लम्बी कविता भी लिख लीजिए, लेकिन, हम सब पत्ते ही गिन रहे हैं! .. गिनते चले जा रहे हैं .. जड़ों में उतरने की हिम्मत किसी के पास भी नहीं .. व्यथा-चित्रण ही कर सकते हैं! .. अद्भुत चित्रण है यह !.. सौम्य शांत भाषा में ..फिर भी, फिर एक लेकिन ?
लेकिन, समाधान कहाँ है?
और आप से कहे जा रहा हूँ.. जड़ों में !! "मैं और मेरा परिवार" .."मैं और मेरी बिरादरी".."मैं और मेरा धर्म/मजहब, पार्टी/विचार-धारा".. "मैं और मेरी सम्पति/बीबी-बच्चे".."मैं और मेरी पहचान/बोली-भाषा संस्कृति" .."मैं और मेरा अतीत".." मैं और मेरा पता नहीं क्या क्या कुछ".. जब तक इन जड़ों को उखाड कर होली नहीं जला दी जायेगी, इन स्थितियों के अंत नहीं हैं !.. यह सुन्दर कविता हमारी संवेदना मैं थोड़ी सी खुजलाहट करेगी और बस!.. शायद, कविता का इतना ही काम है, जो, इसने बखूबी किया है !
कविता पढ़ी , फिर जुनेजा जी की प्रतिक्रिया पढ़ी . . "यह सुन्दर कविता हमारी संवेदना मैं थोड़ी सी खुजलाहट करेगी और बस!.. शायद, कविता का इतना ही काम है, जो, इसने बखूबी किया है !"
ReplyDeleteयही कहना चाहूंगा !
प्रिय आर्जव .. मिले सुर मेरा तुम्हारा :}
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