Thursday, October 7, 2010

मुझे मालूम है मैं हूँ

कहीं कुछ अर्थ  गढ़ता हूँ
कहीं कुछ शब्द लिखता हूँ
कभी कुछ भाव बुनता हूँ
कभी कुछ रूप रचता हूँ
मुझे लगता है मैं हूँ.
सुबह को स्वर्ण लिखता हूँ
रजत-सी रात कहता  हूँ
सुबह की धुंध है मेरी
सघन घन की चमक में हूँ
गिनूँ टूटे हुए पत्ते
सहेजूँ वृक्ष की फुनगी
कोई उड़ता हुआ पाखी
छिपाए पंख में मुझको
जगत में जो भी कुछ दीखे
सभी कुछ मैं सभी मुझमें .

किसी को छू दिया झुककर
किसी का हाल भर पूछा
किसी के सिर पर मेरा हाथ
किसी को मार दी ठोकर
किसी की अंगुलियाँ मेरी
किसी के रात-दिन मेरे
नहीं  छूटा नहीं मुझसे
कहीं कुछ भी नहीं छूटा--
जली लाशों के हों कव्वे
गले क़दमों की बैसाखी
रुदन हो मृत्यु का या फिर
सजे सेहरे या शहनाई
खुली जीवन की हों आँखें
बंधी हों मन की या गांठें
नचाता अँगुलियों पर जो
अवस्थित दूर दुनिया से
उसे भी छू लिया बढ़कर
उसे भी जी लिया मैंने .

नहीं कुछ भी नहीं छूटा
कहीं छूटा नहीं मुझसे
सर्ग की आदि वेला में
नहीं था जब कहीं कुछ भी
तिमिर था घन तिमिर सघन
मैं तब भी था सुनो यूँ ही
कि जिस शून्य से सब कुछ
प्रकट आया समस्त प्रपंच
और फिर हो गए अगणित
जगत-तारक-मनस-जीवन
प्रलय की सृष्टि , सृष्टि का लय
समय का चक्र चलता है
धुरी हूँ मैं , मैं धरता हूँ
ह्रदय में आदि कारण शून्य
सभी कुछ मुझसे उपजा है
सभी का लय मुझ ही  में है
मुझे मालूम है मैं हूँ
सुनो, मैं कवि हूँ. 













4 comments:

  1. बेहद खूबसूरत।
    सरित प्रवाह सी कलकल करती अभिव्यक्ति।
    कविवर, आभार स्वीकार करें।

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  2. भावों से समृद्ध रचना पढ़ने का अवसर देने के लिए धन्यवाद

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  3. अन्य चीजों के अलावा बहुत प्रभावित किया लय ने .
    कबीर की कुछ पंक्तियों की लय याद आयी ---- हमन को इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या....(आगे भी है)

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