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दर्द उधार नहीं लेतीं
देह की दुकानें हैं
उसूल पर चलती हैं.
अनुसूया की मर्यादा
द्रोपदी की दृढ़ता और
सीता का सतीत्व
पुते हैं सब
लिपस्टिक की परतों में .
चमकदार झलर-मलर कपड़ों के भीतर
काजल से काले हैं
आगत के डंक
भूत का भय
और घिनोनापन वर्तमान का.
गहरी रेखाएं गले की
खोह हैं गहरी ,
भूख बिलबिलाती है
बचपन से जहाँ.
नाभि-गह्वर से निकली
रोम-रेखा फैली कुचों तक
सिहरती है अक्सर
शरीर के सिहरने से --
छोटे-छोटे सपने हैं,
नन्हे-नन्हे सुख
कुछ अपने, कुछ अपनों के
तन-तन आते हैं
पूरने की आशा में .
अंग-अंग अपना
जो अपना नहीं भी है
जीता है एक-एक क्षण
दर्द नक़द लेकर .
पोर-पोर टीसता है
इतिहास सभ्यता का ,
पोर-पोर फूटता है
कोढ़ संस्कारों का .
लोथड़े में मांस के
ढूंढता है मांसपिंड
ऐसा कुछ अपरिचित
करता है पास जो
अपने कुछ और पास .
काग़ज़ के टुकड़ों में
मिलता है गोश्त सिर्फ
गोश्त बस गोश्त है.
देह के पार उतरती है देह
देह का तनाव सोखती है देह
मन पांचसाला बच्चे- सा
संभालता है अपनी टॉफियाँ, अपने खिलोने
जो अक्सर
मार खाने के बाद मिलते हैं .
देह की दुकानें
दर्द उधार नहीं लेतीं.
Friday, April 16, 2010
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samaaj ke is hisse ka itna gahan aur bhavpurn vivechan...bahut sundar.....
ReplyDeletehttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
बेहतरीन अभिव्यक्त किया है कविता में अलग-अलग कालखण्डों की नायिकाओं को........"
ReplyDeleteहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
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