Friday, April 16, 2010

देह की दुकानें

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दर्द उधार नहीं लेतीं
देह की दुकानें हैं
उसूल पर चलती हैं.

अनुसूया की मर्यादा
द्रोपदी की दृढ़ता और
सीता का सतीत्व
पुते हैं सब
लिपस्टिक की परतों में .

चमकदार झलर-मलर कपड़ों के भीतर
काजल से काले हैं
आगत  के डंक
भूत का भय
और घिनोनापन वर्तमान का.

गहरी रेखाएं गले की
खोह हैं गहरी ,
भूख बिलबिलाती है
बचपन से जहाँ.

नाभि-गह्वर से निकली
रोम-रेखा फैली कुचों तक
सिहरती है अक्सर
शरीर के सिहरने से --
छोटे-छोटे सपने हैं,
नन्हे-नन्हे सुख
कुछ अपने, कुछ अपनों के
तन-तन आते हैं
पूरने की आशा में .

अंग-अंग अपना
जो अपना नहीं भी है
जीता है एक-एक क्षण
दर्द नक़द लेकर .
पोर-पोर टीसता है
इतिहास सभ्यता का ,
पोर-पोर फूटता है
कोढ़ संस्कारों का .

लोथड़े में मांस के
ढूंढता है मांसपिंड
ऐसा कुछ अपरिचित
करता है पास जो
अपने कुछ और पास .

काग़ज़ के टुकड़ों में
मिलता है गोश्त सिर्फ
गोश्त बस गोश्त है.

देह के पार उतरती है देह
देह का तनाव सोखती है देह
मन पांचसाला बच्चे- सा
संभालता है अपनी टॉफियाँ, अपने खिलोने
जो अक्सर
मार खाने के बाद मिलते हैं .

देह की दुकानें
दर्द उधार नहीं लेतीं.
 


   

3 comments:

  1. samaaj ke is hisse ka itna gahan aur bhavpurn vivechan...bahut sundar.....
    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  2. बेहतरीन अभिव्यक्त किया है कविता में अलग-अलग कालखण्डों की नायिकाओं को........"

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  3. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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