Monday, November 1, 2010

माँ स्वेटर बुन रही है

ऊन में उलझी सलाई
डोलती संग-संग कलाई
बुन रही है स्नेह-पूरित
छांह ममता की .

              ठण्ड कुछ चुभने लगी है
              देह पर उगने लगी है
              धूप की सीली छुवन अब
              अनमनी लगने लगी है

 शीत ने जब कंपकंपाया
माँ की आँखों से छिपाया
दुःख सहेगी थक न जाये
बांह ममता की .

                बुन रही है सुख सुनहरे
                भूत के सब दंश गहरे
                काढती है फूल-पत्ते
                मुस्कराहट से भरे

छान दी है कल्पना
आशीष की ज्यों अल्पना
हर सलाई बढ़ रही है
चाह ममता की.

                   बुन रही  है ज्ञान सारा
                   गुन रही अपना सितारा
                   बांधती फंदे बनाकर
                   भाग्यसर का नीर खारा

बुन रही है गर्म स्वेटर
शीत से खुद काँपकर
पा सका है कौन आखिर
थाह ममता की.....  .



8 comments:

  1. इस कविता ने उस औरत की मूरत सामने ला दी, जिसकी झुर्रियों में हम आज भी अपना बचपन तलाशते हैं और जिसके बुने स्वेटर की गर्मी कभी कम न हुई... आपने हमारा बचपन फिर से लौटा दिया... बस यही जी करता है कि माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ...

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  2. मूक रहने को विवश करते हो कवि !
    स्वेटर-बुनाई-से कार्य पर इतनी सुघर कविता की कल्पना नहीं की थी !

    निर्निमेष चितवन से निहारता हूँ यह कविताई, गीतकारी, बुनाई !
    सदैव पढ़ता रहूँ इस कविता के कवि को !

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  3. कवि!
    अश्रुओं के कई कमंडल अर्पण.
    इस महाज्ञान की तस्वीर पर,
    कितने ही शरद, अगणित जेठ अर्पण.

    इस ममतामयी कविताई को युगों का प्रकाश प्राप्त हो...हमें पढने का परम सुख.

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  4. बुन रही है सुख सुनहरे
    भूत के सब दंश गहरे
    ......
    पा सका है कौन आखिर
    थाह ममता की..... .

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  5. गीत ही है यह!
    कितनी सहजता से आप गहरे भाव पिरो देते हैं!

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  6. वाह ,अद्भुत अभिव्यक्ति ! भावों और शिल्प की एकतार जुगलबंदी !

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  7. कालजयी रचना -एक बार फिर भाव पूरित हुआ

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