डोलती संग-संग कलाई
बुन रही है स्नेह-पूरित
छांह ममता की .
ठण्ड कुछ चुभने लगी है
देह पर उगने लगी है
धूप की सीली छुवन अब
अनमनी लगने लगी है
अनमनी लगने लगी है
माँ की आँखों से छिपाया
दुःख सहेगी थक न जाये
बांह ममता की .
बुन रही है सुख सुनहरे
भूत के सब दंश गहरे
काढती है फूल-पत्ते
मुस्कराहट से भरे
छान दी है कल्पना
आशीष की ज्यों अल्पना
हर सलाई बढ़ रही है
चाह ममता की.
बुन रही है ज्ञान सारा
गुन रही अपना सितारा
बांधती फंदे बनाकर
भाग्यसर का नीर खारा
बुन रही है गर्म स्वेटर
शीत से खुद काँपकर
पा सका है कौन आखिर
थाह ममता की..... .
speechless... awesome...
ReplyDeleteइस कविता ने उस औरत की मूरत सामने ला दी, जिसकी झुर्रियों में हम आज भी अपना बचपन तलाशते हैं और जिसके बुने स्वेटर की गर्मी कभी कम न हुई... आपने हमारा बचपन फिर से लौटा दिया... बस यही जी करता है कि माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ...
ReplyDeleteमूक रहने को विवश करते हो कवि !
ReplyDeleteस्वेटर-बुनाई-से कार्य पर इतनी सुघर कविता की कल्पना नहीं की थी !
निर्निमेष चितवन से निहारता हूँ यह कविताई, गीतकारी, बुनाई !
सदैव पढ़ता रहूँ इस कविता के कवि को !
कवि!
ReplyDeleteअश्रुओं के कई कमंडल अर्पण.
इस महाज्ञान की तस्वीर पर,
कितने ही शरद, अगणित जेठ अर्पण.
इस ममतामयी कविताई को युगों का प्रकाश प्राप्त हो...हमें पढने का परम सुख.
बुन रही है सुख सुनहरे
ReplyDeleteभूत के सब दंश गहरे
......
पा सका है कौन आखिर
थाह ममता की..... .
गीत ही है यह!
ReplyDeleteकितनी सहजता से आप गहरे भाव पिरो देते हैं!
वाह ,अद्भुत अभिव्यक्ति ! भावों और शिल्प की एकतार जुगलबंदी !
ReplyDeleteकालजयी रचना -एक बार फिर भाव पूरित हुआ
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