Monday, November 8, 2010

अंतिम पत्र : विदा, मनमीत !

उम्र की इस सांध्य-वेला में मुझे आवाज़ देकर
चाहती हो क्यों भला तुम बेवज़ह बदनाम होना
अब न वो शोला रहा है धूम भी बाकी नहीं है
हर नया झोंका हवा का ले गया कुछ छीनकर
और फिर वैसे भी अपने खण्डहर सम्बन्ध में
ढूंढना कोई खज़ाना मात्र कोरा भ्रम ही है
भग्न तुम हो भग्न मैं हूँ बस यही एक सत्य है तो
क्यों किसी सम्पूर्ण की चाहत हमें भटकाए फिर
कर लिया स्वीकार मैंने चिर अधूरापन, सुनो
क्या तुम्हें लगता है अब भी रेत में जल पा सकोगी
रख लिए एकादशी के व्रत अनेकों, बस करो
अब शाम को तुलसी के आगे और मत रखना दिया
अब नहीं उजले पखेरू की धवल पाँखों में मुझको
दीखतीं पल भर न जाने क्यों तुम्हारी उँगलियाँ
अब किसी के हाथ की तकदीर वाली रेख में
नाम अपना देखने की लालसा उठती नहीं है
अब किसी आषाढ़  के बादल से मेरी दोस्ती
नाम कोई ख़त तुम्हारे रोज लिखवाती नहीं है
अब न ये पुरवाइयां मजबूर करतीं गुनगुनाऊं
गीत जो मैंने लिखे थे मौन रातों जागकर
अब कभी कोई अचानक नाम जब लेता तुम्हारा
बन्द आँखों सोचता हूँ लग रहा है सुना हुआ
अब किताबों के मुड़े पन्ने न मुझको बांधते हैं
अब न आती है हंसी किस्से पुराने यादकर
चाहती हो लौट आऊं दूर लेकिन आ गया हूँ
वेदना के लोक अनगिन डूबकर कुछ लांघकर
ठूंठ है इस ठूंठ को सम्बन्ध का मत नाम दो
फूल खुशियों के उगेंगे और मत पालो भरम
झुक रहा है शीश पर उपलब्धियों का आसमान
उठ खड़ी हो जाओ तुमको आज पाना है अनंत
मुट्ठियाँ बांधो कि तुमको बांधनी है रौशनी
और करना है प्रकाशित धूममय संसार को.

9 comments:

  1. पराकाष्ठा इसीको ही कहते हैं न?
    अधूरापन जिस दिन पूरा हो गया तो शेष क्या रहेगा?
    लौटना नहीं हो सकेगा पर दूर भी नहीं हैं आप...।

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  2. आपकी कविताओं में हरिवंश राय और रामकुमार वर्मा जी की झलक दिख जाती है -
    मैं उन्हें सदैव पढ़ना चाहूँगा .....यह कविता भी मन को गहरे छू गयी है ...
    मेरी अल्प समझ में कविता वही श्रेष्ठ है नितांत निजी पीड़ा में व्यष्टि की पीड़ा को पहचान दे ,उससे जुड़ जाय ,तादात्म्य स्थापित कर ले!
    आप इस फेन में फना हुए लगते हैं ....यह बड़ी बात है !

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  3. is kavitaa par maun aur aatma manthan ke atirikt kuchh nahin kahaa ja saktaa.. rajanikaant ji aapane premki nayi paribhasha gadh dee hai..

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  4. मौन दे गई यह कविता। जाने कितने भाव छिपे हैं! कुछ तो जटिल लग रहे हैं। उन्हें खोल सका तो फिर आऊँगा।

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  5. ना जाने उस पर क्या बीती होगी
    जिसे यों बिदाई दी गयी है ..
    .....
    कई बार आकर पढना हुआ इसे

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  6. ARIMARDAN SINGH GAURMon Nov 15, 04:08:00 AM 2010

    'uth khadi ho jao tumko aaj pana hai anant'
    'mutthiyan bandho ki tumko badhni hai roshni'jaisi bhavnaon ke saath 'sambandh khandhar' ho hi nahi sakte.hindi kavya sansar ko sachmuch 'khjana' mil gaya hai;'maatra kora bhram nahi hai'yah.bhav aur shilp men adbhut hai yah kavita.badhai....

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  7. ये प्यार भी मुआ गज़ब का अहसास है

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  8. मुट्ठियाँ बांधो कि तुमको बांधनी है रौशनी
    और करना है प्रकाशित धूममय संसार को...........जीवन के तमाम दुःख अपरिहार्य परिस्थितियों के पलों को एक पोटली में बांध कर अंतत फिर से नव उर्जा का सर्जन ..ये ही तो सच्चा जीवन है ....बहुत खुबसूरत ..Nirmal paneri

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  9. कई बार पढ़ चुका, पर नयापन बरक़रार है | सच में कविता कभी पुरानी नहीं होती; अप्रासंगिक तो कभी नहीं; हो जाये तो कविता नहीं | खूबसूरत !!

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