तो बात तय हो गयी है--
खतरनाक है सपने देखना भूखे पेट
खायी-अघाई दुनिया में.
जल-जंगल -ज़मीन कोई शर्त नहीं हैं
कोई शर्त नहीं हैं बोली-पहचान-पहनावा
जीते जाने की सभ्य होकर .
बाज़ार घर नहीं हो सकता
मुनाफे का गणित यही कहता है
घर बाज़ार में बदले यह सम्भावना है
प्रबंधन-क्षमता के विकास की
बेटा पल्टू, नाच देख, डबलरोटी खा, घर जा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.
यह बात भी तय हो गयी है
रोने और रोने में अंतर होता है
अपनी-परायी दुनिया में
आंसुओं का स्वाद मायने नहीं रखता
आँखों का रंग देखा जाना चाहिए
जिंदगी आदत होनी चाहिए, मर्ज़ी नहीं
ब्रांड वैल्यू के लिए ज़रूरी है यह
बेटा टिल्ठू , और झुक जा, ठीक से कोर्निश बजा, मत लजा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.
अब, जबकि तय होने की सभी चीज़ें तय कर ली गयी हैं
अगर तम्हारी भूख का आकार तय नहीं है
अगर तुम्हारे घावों की संख्या तय नहीं है
अगर तुम्हारी मौत का तरीका तय नहीं है
तो इसलिए सिर्फ इसलिए
कि इनसे मुनाफे का हिसाब अभी ज़ारी है
कि इनसे उनके सभ्य होने के तरीके में कोई खास फर्क नहीं पड़ता
और अभी तय करने की बारी उनकी है.
बेटा लल्टू, दंडवत कर, पसर जा, मुस्कुरा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.
Monday, November 29, 2010
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बाज़ार घर नहीं हो सकता
ReplyDeleteमुनाफे का गणित यही कहता है
घर बाज़ार में बदले यह सम्भावना है
प्रबंधन-क्षमता के विकास की
जिंदगी आदत होनी चाहिए, मर्ज़ी नहीं
ब्रांड वैल्यू के लिए ज़रूरी है यह
अब, जबकि तय होने की सभी चीज़ें तय कर ली गयी हैं
अगर तम्हारी भूख का आकार तय नहीं है
अगर तुम्हारे घावों की संख्या तय नहीं है
अगर तुम्हारी मौत का तरीका तय नहीं है
तो इसलिए सिर्फ इसलिए
कि इनसे मुनाफे का हिसाब अभी ज़ारी है
गहन बोध वाली कविता। पल्टू, लिल्ठू और लल्टू के सामने ओबामा! अंकल हैं यह, चचा नहीं- जाने क्या होगा?
नचा दिया, झुका दिया और दंडवत भी करवा दिया, बेटा नं. चार चल अब हंसते हंसते जान भी दे दे, ओबामा रोज थोड़े ही आता है।
ReplyDeleteबिटविन द लाइन्स छिपी व्यथा, व्यंग्य और विकास की सचाई.. बहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteकविता पढने के बाद कुछ वैसा ही जैसे सुस्वादु भोजन खाने के बाद बरबस अंगुलि-चाटन ! आभार !
ReplyDeleteकर दंडवत ,बार बार थोड़े ही आता है अंकल सैम
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