Saturday, November 20, 2010

गद्य गीत

शरद की गुनगुनी धूप और ग्रीष्म की पुरवा-से लगते हो तुम.
महसूस तो करता हूँ तुम्हें, सम्पूर्ण शक्ति लगाकर भी छू नहीं पाता .
सम्पूर्ण समर्पण कर भी देख लिया , एकाकार न हो सके हम.
यह लुका-छिपी का खेल कब तक चलेगा ?
टक बांधे खड़े हैं हम और तुम आवाज़ लगाकर कभी इधर से तो कभी उधर से, छिप जाते हो.
मेरे गीत, यह छंदों का बंधन इतना कड़ा क्यों है !

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सुनो, मेरी तस्वीर अब भी बेजान है.
दे सकोगी एक मुट्ठी भर मुस्कान उधार  ?
एक मुट्ठी आकाश मेरे पास है, एक तुम मिला दो.
क्या हम दोनों के लिए इतना काफी न होगा !

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रिक्तता से पूर्ण आँचल में सँभालने को तुमने स्मृतियाँ दीं , यही क्या कम है.
प्यासा तो था पहले भी पर जल से अनभिज्ञ .
जलपात्र दिखाकर प्यास का बोध तो तुमने ही कराया.
मेरे सागर ,  जल तुम्हारा था तुम ले गए.
हमारे पास प्यास ही सही अपनी तो है.
पराये मेघों का मातम करें या सूखे होंठों के लिए ओस तलाशें, तुम्हीं कहो.

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एक बार हाथ बढाकर छू लूं तुम्हें , मन कहता है.
जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा.
तुम पारस हो , इसमें तनिक संदेह नहीं.
डरता हूँ , मैं ही लौह न हुआ तो ?

7 comments:

  1. अछूती भावनाऑं की अनूठी अभिव्यक्ति!

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  2. अपने प्रति सतर्क 'गीतांजलि'।

    वन्दना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो।

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  3. बेहतरीन अनूठा अन्दाज

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  4. हमारे देखे तो प्रेम की प्रोढता उसकी समानता है, फिर परस हो या सोना. कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योकि दोनों एक जैसे हो गए है. कशमकश तो द्वैत में होती है...
    कविताई की हिसाब से आपका संकोच तो बेहद आकर्षक है.
    लिखते रहिये ....

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  5. इन कविताओं को सिर्फ पढ़,समझ और गुन सकती हूँ ...
    टिप्पणी करना वश में नहीं ...!

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  6. दे सकोगी एक मुट्ठी भर मुस्कान उधार ?

    वाह! बहुत सुन्दर!

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