Monday, September 19, 2011

मन की पोथी

बांटता ग़म सभी साथ तेरे मगर 
तुझपे जाने मुझे क्यों भरोसा न था
यह नहीं कि तुझे मैंने पूजा नहीं 
या कभी टूटकर तूने चाहा  न था

      मेरी आँखें प्रिये तेरी आँखों में थीं
     तेरी साँसों की मधुगंध थी सांस में
     मेरे होंठों से पिघली हँसी में तू ही 
     दर्द-सा ले फिरा तुझको एहसास में

पर निरंतर रही टीसती एक व्यथा
अश्रुजल में तेरे जिसको धोया न था

      साँझ की हर ढलकती किरण लिख गयी 
     मौन के अक्षरों में कथाएँ कई
     रात-सा मन पसरता रहा दूर तक
     बाँध लेने को लाखों व्यथाएँ नई

भागवत की कथा-सा मैं बहता मगर
आवरण मन की पोथी का खोला न था . 

Wednesday, September 7, 2011

तुम्हारी पाती

तुम्हारी पाती मिली अबोध 
तुम्हारी पाती मिली अजान
नयन के कोरों पर चुपचाप
उभर आई पिछली पहचान 

     किताबों में डूबा मैं आज 
     ढूंढता  था जीवन के राज़ 
     तभी धीरे से आकर पास 
     तुम्हारे ख़त ने दी आवाज़

मुझे खोलो मैं थककर चूर
संभालो लाया हूँ मुस्कान 

     नयन से देखा जैसे गीत 
     लिया अधरों से छू संगीत 
     लगा है ऐसा ही कुछ आज
     तुम्हारा ख़त पाकर मनमीत 

उडूं मैं नभ में पांखें खोल
सुनाता फिरूं तुम्हारे गान

     जगे हैं सोए मन के भाव 
     अखरने लगा बहुत अलगाव
     न जाने बीते दिन क्यों आज
     कसकते जैसे कोई घाव 

हिये की पगली छिछली पीर
गयी अधरों पर बन मुस्कान
तुम्हारी पाती मिली अबोध 
तुम्हारी पाती मिली अजान.

(प्रथम दो पंक्तियाँ स्व. डॉ धर्मवीर भारती जी से साभार)



Wednesday, August 31, 2011

पल्टुआ, भैंस और स्टीफन हाकिंग

पल्टुआ बतियाता ही रह गया 
खड़ा नीम की आड़ में
गवने से लौटी
दुक्खी काका की बेटी फुलमतिया से
और भैंस चर गयी लोबिया 
चन्नर पांड़े के तलहवा खेत में.

हमारे समय के 
सबसे बड़े ब्रह्माण्डवेत्ता -- स्टीफन हाकिंग     
कह रहे हैं 
स्वर्ग-नरक कुछ भी नहीं 
कुछ नहीं बचता मृत्यु के बाद 
मर जाता है 
बस मर जाता है
एक बारगी ही समूचा अस्तित्व 
गणितीय प्रमेयों के अंतिम निष्कर्ष यही कहते हैं.

पल्टुआ सिंगुलरीटी थेओरम्स नहीं जानता
नहीं जानता क्वांटम ग्रेविटी 
भैंस को भी नहीं पता 
चमरौंधा लेकर आ रहे हैं चन्नर पांड़े
लुढ़कते-पुढ़कते-गरियाते 
फुलमतिया भी जानती है तो बस इतना --
देख ली गयी तो बदनामी होगी .

मैं , जो कि द्रष्टा हूँ 
कन्फ्यूज हो गया हूँ
सेकेण्ड ला ऑफ़ थर्मोडायनेमिक्स मदद नहीं करता 
और न ही अनसर्टेंटी प्रिंसिपल 

साइकोलोजिकल ऐरो ऑफ़ टाइम कहता है 
भैंस पिटेगी और पल्टुआ गरियाया जायेगा 
फुलमतिया भाग निकलेगी घर की ओर

थर्मोडायनेमिक ऐरो ऑफ़ टाइम बताता है
भैंस के पेट में पहुँच गया लोबिया
अव्यवस्था से व्यवस्था की ओर गमन है
घटती लगती है एंट्रोपी
पर यह अनर्थ है,
चबाने में भैंस ने खर्च की जो ऊर्जा
बढ़ा देती है वह ब्रह्माण्ड की सकल एंट्रोपी
अर्थात अव्यवस्था !

यानी की बढ़ रहा है सब कुछ
व्यवस्था से अव्यवस्था की ओर
सतत अबाधित
और मैं जितना समझ पाता हूँ इस मामले में
भैंस भी करती है प्रभावित ब्रह्माण्ड को
उतना ही जितना कि स्टीफन हाकिंग .

Sunday, August 21, 2011

एक बरसाती रात

रात आई बहुत देर तक याद तू 
रात बादल गरजते रहे देर तक
रात आँखों में चुभती रही रौशनी 
रात जुगनू चमकते रहे देर तक

रात आंधी चली रात बिजली गिरी
जाने किसके भला आशियाने जले 
ख़त मिला था तेरा कल ढली सांझ को
और तेरे ही ख़त सब पुराने जले

रात बजती रही धुन कोई अनसुनी  
रात वादे कसकते रहे देर तक

रात मैंने किये पुण्य संकल्प सब
प्रिय सुनो यह सभी अब तुम्हारे हुए
रात मैंने लिखी एक ताज़ा ग़ज़ल 
तन को जीते हुए मन को हारे हुए

रात बीते बरस आँख की कोर से 
धीरे-धीरे छलकते रहे देर तक

रात आये न जाने कहाँ से भला
और बादल उड़ाकर कहाँ ले गए  
चढ़ते सूरज की पावन गवाही में जो 
स्वप्न आँखों में अपनी संभाले गए

रात उठती रही देर तक गंध भी 
रात सपने महकते रहे देर तक 
 

Saturday, July 23, 2011

बरसो सावन बरसो

बरसो सावन बरसो

गोबर की परधानी भीगे
काली कुतिया कानी भीगे
इटली की महारानी भीगे
आँख का उनकी पानी भीगे
बरसो सावन बरसो

मनमोहन और अन्ना भीगें
खाकी लाल घुटन्ना भीगें
लोकपाल कंधे पर धरके
नाचें तन्ना-तन्ना भीगें
बरसो सावन बरसो

खाएं प्रिंस पकोड़ा भीगें
हसन अली के घोडा भीगें
राजा और यदियुरप्पा से कुछ  
बचे-खुचे तो कौडा  भीगें
बरसो सावन बरसो

जनपथ भीगे संसद भीगे
इजलासों का गुम्बद भीगे
छाती पर चढ़कर बैठी  जो
काठ की कुर्सी शायद भीगे
बरसो सावन बरसो
बरसो सावन बरसो




Wednesday, July 20, 2011

सावन के मेघ

जाने किसकी आँखें उमड़ीं
नभ में छाए काले मेघ
किस विरही के भेजे आए
क्या संदेश संभाले मेघ

     तन की पाती मन के नाम
     भूला-बिसरा कोई काम
     याद दिलाने को आयी है
     फिर सावन की भीगी शाम

बरस रहे हैं धो डालेंगे
विस्मृतियों के जाले मेघ ।

Friday, July 15, 2011

जीवधारी रुपए

गाड़े हुए रुपए जीवधारी हो जाते हैं
एक लंबे समय के बाद
एक लंबे समय पहले सुनी थी यह बात
दादी से किसी कहानी के दरम्यान

लंबे समय पहले की बातें
सच ही हो जाती हैं
लंबे समय के बाद

अब नहीं गाड़ता है कोई भी
रुपए दीवार या ज़मीन में
यह तमाम जीवधारी रुपए
डोलते फिरते हैं जो
राजपथ-जनपथ-संसद के गलियारों में
पुराने दिनों के गाड़े हुए हैं

कहानियाँ दादी की थीं
दादी कहानियों में चली गईं
लंबा समय अब लंबा नहीं रहा
जीवधारी रुपए अब लौटाने ही होंगे
अपने गड्ढों में लंबे समय के बाद
संभलने लगी हैं कुदालें
कसमसाने लगे हैं उनके बेंट
और ज़मीनें तैयार होने लगी हैं ।

Tuesday, July 5, 2011

तुमको बात बदलते देखा

हमने सूरज ढलते देखा
सुबहो-शाम पिघलते देखा

घर से माँ का ख़त आया है
आँखें मलते-मलते देखा

इस सावन में घर जाऊंगा
सपना चलते-चलते देखा

देखी होगी राह किसी ने
दोपहरी को गलते देखा

मन जाने कैसा हो आया
तुमको बात बदलते देखा

तुम भी अपने-से लगते हो
तुमको भी मन छलते देखा

शायद फागुन आने वाला
मन को आज फिसलते देखा

आज किसी ने सच बोला है
पत्थर आज सँभलते देखा

Wednesday, June 29, 2011

मुहब्बत कोई कैजुअल लीव नहीं

दुनिया को मुहब्बत का उपदेश देने वालो ,
तुम देहरी पर ठिठक कर लौट आए
और पीट दिया ढिंढोरा--
सब पा लिया आदि-अंत अनंत का !
उपलब्धि की कसौटी पर कसा और
लटका लिया पदक-सा गले में.

मुहब्बत कोई कैजुअल लीव नहीं
जो ली और फिल्म देख आये
या फिर पुराने किले की सुनसान ढलानों पर
घड़ी-दो घड़ी लेटे लौट आए
मुहब्बत हंसिये की मूठ पर चमकता पसीना है
जिसे जेठ  के तमतमाए  सूरज ने देखा
और खौफ खा गया.

मुहब्बत न राम की मर्यादा है
न लक्ष्मण की भ्रातृनिष्ठा
और न ही रघुकुल की तथाकथित रीति
मुहब्बत सीता की अग्निपरीक्षा है
अविश्वासी को जिसने युगों का बनवास दिया.

मुहब्बत अर्जुन का गांडीव नहीं
कृष्ण का सुदर्शन चक्र भी नहीं
मुहब्बत रथ का वह टूटा हुआ पहिया है
मान-मर्दन किया महारथियों का जिसने
युगों के लिए उन्हें श्रीहीन कर दिया .

मुहब्बत न यह धरती है न ये सरहदें
न गोलियां,  न टैंक,  न कंटीली बाड़ें 
मुहब्बत फौजी के उस बूढ़े बाप का कलेजा है
जो कहता है-- काश मेरा एक और बेटा होता !

मुहब्बत न गीता है, न बाइबिल, न कुरान
न मंदिर की आरती है न मस्जिद की अजान
मुहब्बत वह धूप है
जो दोनों की सहन में बराबर उतरती है
मुहब्बत वह हवा है
जो दोनों की धूल बराबर बुहारती है.

दुनिया को मुहब्बत का उपदेश देनेवालो !
मुहब्बत वह बारिश है
जो सबका रंग-रोगन धो देती है
और नंगा कर देती है
पाखण्ड के ढांचों को
देह की दीवार को
परम्पराओं को , किताबों को
सिद्धांत के खांचों को.


Friday, June 24, 2011

अपने बेटे की ओर से

तुमने कभी कहा नहीं
और मैं समझता रहा
तुम जानते ही नहीं
पिता, तुम्हारा मौन चुप्पी नहीं
यह रहा है स्वीकृति
मेरे बड़े होते जाने की
उम्र और समझदारी में
या शायद दुनियादारी में

पिता, तुम्हारे मौन को
अनदेखा करना नहीं कह सकता मैं
मैं नहीं कह सकता इसे तटस्थता
बर्फ की तरह निष्पंद और ठंडी
कठोर... जम जाने की हद तक.

पिता, मेरे बड़े होने में बड़ा हुआ है
कहीं कोई अंश तुम्हारा भी
मेरे बढ़ने जितना ही घटनापूर्ण है
मुझे बढ़ते देखकर तुम्हारा मौन रह जाना

पिता, जितना मैं समझ पाया हूँ
यह मौन सिर्फ मेरे-तुम्हारे बीच का नहीं
यह दो पीढ़ियों की थाती है
जिसे ढोना  हमेशा सलीब का ढोना नहीं होता 
हर बार अपने सामान के साथ
अनायास बांसुरी का रख जाना भी होता है

पिता, मुझे लगता है 
कि मैं समझता हूँ तुम्हारा मौन
पर हर बार एक अलग तरीके से .