रात आई बहुत देर तक याद तू
रात बादल गरजते रहे देर तक
रात आँखों में चुभती रही रौशनी
रात जुगनू चमकते रहे देर तक
रात आंधी चली रात बिजली गिरी
जाने किसके भला आशियाने जले
ख़त मिला था तेरा कल ढली सांझ को
और तेरे ही ख़त सब पुराने जले
रात बजती रही धुन कोई अनसुनी
रात वादे कसकते रहे देर तक
रात मैंने किये पुण्य संकल्प सब
प्रिय सुनो यह सभी अब तुम्हारे हुए
रात मैंने लिखी एक ताज़ा ग़ज़ल
तन को जीते हुए मन को हारे हुए
रात बीते बरस आँख की कोर से
धीरे-धीरे छलकते रहे देर तक
रात आये न जाने कहाँ से भला
और बादल उड़ाकर कहाँ ले गए
चढ़ते सूरज की पावन गवाही में जो
स्वप्न आँखों में अपनी संभाले गए
रात उठती रही देर तक गंध भी
रात सपने महकते रहे देर तक
रूमान की एक और दहलीज पर ले आती कविता
ReplyDeleteहाँ, रात भर सपने महकते रहे.
ReplyDeleteपता नहीं क्यों इस गीत को पढते हुए मेरे मस्तिष्क में मुहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ और खय्याम साहब का राग पहाड़ी में सजा गीत बजने लगा... एक नशा!!
ReplyDeleteअपने को गमन की गज़ल याद आ गई, ’रात भर आपकी याद..’
ReplyDelete"रात बीते बरस आँख की कोर से
ReplyDeleteधीरे-धीरे छलकते रहे देर तक ।" -
बस यहीं ठहर गया मैं । मुझे भी ऐसा लिखना सिखा दो भईया !