Sunday, August 21, 2011

एक बरसाती रात

रात आई बहुत देर तक याद तू 
रात बादल गरजते रहे देर तक
रात आँखों में चुभती रही रौशनी 
रात जुगनू चमकते रहे देर तक

रात आंधी चली रात बिजली गिरी
जाने किसके भला आशियाने जले 
ख़त मिला था तेरा कल ढली सांझ को
और तेरे ही ख़त सब पुराने जले

रात बजती रही धुन कोई अनसुनी  
रात वादे कसकते रहे देर तक

रात मैंने किये पुण्य संकल्प सब
प्रिय सुनो यह सभी अब तुम्हारे हुए
रात मैंने लिखी एक ताज़ा ग़ज़ल 
तन को जीते हुए मन को हारे हुए

रात बीते बरस आँख की कोर से 
धीरे-धीरे छलकते रहे देर तक

रात आये न जाने कहाँ से भला
और बादल उड़ाकर कहाँ ले गए  
चढ़ते सूरज की पावन गवाही में जो 
स्वप्न आँखों में अपनी संभाले गए

रात उठती रही देर तक गंध भी 
रात सपने महकते रहे देर तक 
 

5 comments:

  1. रूमान की एक और दहलीज पर ले आती कविता

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  2. हाँ, रात भर सपने महकते रहे.

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  3. पता नहीं क्यों इस गीत को पढते हुए मेरे मस्तिष्क में मुहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ और खय्याम साहब का राग पहाड़ी में सजा गीत बजने लगा... एक नशा!!

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  4. अपने को गमन की गज़ल याद आ गई, ’रात भर आपकी याद..’

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  5. "रात बीते बरस आँख की कोर से
    धीरे-धीरे छलकते रहे देर तक ।" -
    बस यहीं ठहर गया मैं । मुझे भी ऐसा लिखना सिखा दो भईया !

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