हमने सूरज ढलते देखा
सुबहो-शाम पिघलते देखा
घर से माँ का ख़त आया है
आँखें मलते-मलते देखा
इस सावन में घर जाऊंगा
सपना चलते-चलते देखा
देखी होगी राह किसी ने
दोपहरी को गलते देखा
मन जाने कैसा हो आया
तुमको बात बदलते देखा
तुम भी अपने-से लगते हो
तुमको भी मन छलते देखा
शायद फागुन आने वाला
मन को आज फिसलते देखा
आज किसी ने सच बोला है
पत्थर आज सँभलते देखा
ये गज़ल अल्टीमेट है.. सादगी लफ़्ज़ों की और गहराई ख्याल की.. अद्भुत संगम..
ReplyDelete’आज क्या कमाया?’
ReplyDelete’कोई अपना ही नहीं आया’ ;(
एक व्यावहारिक जगत को निरूपित करती रचना। प्रोफ़ैसर साहब, सैल्यूट।
सचमुच, मुझे भी वही कहना है salute !!
ReplyDeleteबस 'वाह' और कुछ नहीं !
ReplyDeleteगज़ब !
ReplyDeleteआभार ।
सही कहा है।
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