Tuesday, July 5, 2011

तुमको बात बदलते देखा

हमने सूरज ढलते देखा
सुबहो-शाम पिघलते देखा

घर से माँ का ख़त आया है
आँखें मलते-मलते देखा

इस सावन में घर जाऊंगा
सपना चलते-चलते देखा

देखी होगी राह किसी ने
दोपहरी को गलते देखा

मन जाने कैसा हो आया
तुमको बात बदलते देखा

तुम भी अपने-से लगते हो
तुमको भी मन छलते देखा

शायद फागुन आने वाला
मन को आज फिसलते देखा

आज किसी ने सच बोला है
पत्थर आज सँभलते देखा

6 comments:

  1. ये गज़ल अल्टीमेट है.. सादगी लफ़्ज़ों की और गहराई ख्याल की.. अद्भुत संगम..

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  2. ’आज क्या कमाया?’

    ’कोई अपना ही नहीं आया’ ;(


    एक व्यावहारिक जगत को निरूपित करती रचना। प्रोफ़ैसर साहब, सैल्यूट।

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  3. सचमुच, मुझे भी वही कहना है salute !!

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  4. बस 'वाह' और कुछ नहीं !

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