तुमने कभी कहा नहीं
और मैं समझता रहा
तुम जानते ही नहीं
पिता, तुम्हारा मौन चुप्पी नहीं
यह रहा है स्वीकृति
मेरे बड़े होते जाने की
उम्र और समझदारी में
या शायद दुनियादारी में
पिता, तुम्हारे मौन को
अनदेखा करना नहीं कह सकता मैं
मैं नहीं कह सकता इसे तटस्थता
बर्फ की तरह निष्पंद और ठंडी
कठोर... जम जाने की हद तक.
पिता, मेरे बड़े होने में बड़ा हुआ है
कहीं कोई अंश तुम्हारा भी
मेरे बढ़ने जितना ही घटनापूर्ण है
मुझे बढ़ते देखकर तुम्हारा मौन रह जाना
पिता, जितना मैं समझ पाया हूँ
यह मौन सिर्फ मेरे-तुम्हारे बीच का नहीं
यह दो पीढ़ियों की थाती है
जिसे ढोना हमेशा सलीब का ढोना नहीं होता
हर बार अपने सामान के साथ
अनायास बांसुरी का रख जाना भी होता है
पिता, मुझे लगता है
कि मैं समझता हूँ तुम्हारा मौन
पर हर बार एक अलग तरीके से .
कविराज,
ReplyDeleteमेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा,
बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है!!
पुत्र पिता का ही अंश भी है और विस्तार भी।
ReplyDeleteमाँ-पुत्र पर बहुत कुछ लिखा गया है, उस तुलना में पिता-पुत्र पर बहुत कम पढ़ा है।
आप सोचने पर मजबूर कर देते हैं प्रोफ़ैसर साहब।
अद्भुत.....
ReplyDeleteयह कविता स्वयं को जीती है, पढने वाले के अन्दर
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