बादल तुमको उपमाओं में
बाँधा हर युग , हर कवि ने
लेकिन क्या तुम बंध पाए हो
या क्या तुम बंध पाओगे
दूर समय की सीमाओं में ?
जाने क्यों लगता है ऐसा
जैसे तुम आकाश नहीं
एक अंश हो मेरे मन का
हर पल जिसमें घुमड़ा करते
शक्तिवान सौ-सौ तूफान
हर पल बदला करते चेहरे
उमड़-घुमड़ लाखों विचार
मन फिर भी वही है रहता--
चिर एकाकी निर्विकार !
इतना गरजे, इतना बरसे
धरती का रंग बदल दिया
पौधों में जीवन सरसाया
सागर को कर दिया अपार
लेकिन क्या तुम छू पाए हो
आसमान को एक निमिष भी ?
क्या अविरल धारा बूंदों की
भिगो सकी है एक अंश भी ?
बादल! भटकोगे अनंत तक
तो भी कुछ तुम पा न सकोगे
अंत समय जब लेखोगे तुम
जीवन भर के कर्म-अकर्म
निश्चय ही पाओगे सबका
योग सिर्फ तुम एक सिफ़र !
इधर ढकोगे उधर खुलेगा
इतना विस्तृत है आकाश .
आओ बैठो पल-दो पल हम
कह लें- सुन लें अपनी-अपनी
फिर जाने कब मिलना होगा
फिर कब ऐसी धूप ढलेगी
फिर जाने कब रात की रानी
इच्छाओं-सी हमें छलेगी
फिर जाने कब भोर का तारा
छू पाएँगे आँखों से
फिर जाने कब सो पाएँगे
रजत-परी की पांखों में
उजले-उजले दूध धुले-से
तुम , मैले मत हो जाना
इधर सरककर पास जरा-सा
आओ बैठो घड़ी-दो घड़ी .
क्या कहते हो , देर हो रही ?
अरे, कहो, कहाँ जाओगे ?
कौन देखता राह तुम्हारी ?
मुझको जाना दूर यहाँ से
वहां जहाँ सब प्यासी ऑंखें
आसमान को ताक रही हैं
ताल-तलैया-पोखर-सरवर
पनघट-पनघट झाँक रही हैं
मुझे भूमि के फटे कलेजे
पर मरहम का लेप लगाना
झाड़-झंखाड़ी में उग आये
नीम-पीपलों को नहलाना
मुझे पाटने ताल-पोखरे
मुझे डुबोने बाग़-बगीचे
सुनो ,सुनाई देगा तुमको
होता है मेरा आवाहन---
'काठ-कठौती पीयर धोती
मेघा साले पानी दे'
नंग-धड़ंगे बच्चे भू पर
लोट रहे, जलपोट रहे
नीचे जलती धरती ऊपर
डाल रहे गगरी से पानी .
जाना है, अब जाना मुझको
ले धरती की चूनर धानी
अगले फागुन आऊंगा मैं--
आस धराती पिय की पाती---
--- अभी सेठ कुछ दिक्कत में है
अभी पगार नहीं मिली
फिर भी मैं कुछ भेज रहा हूँ
देखो, यह जो पैसे हैं ना
मोहन के जूते ले देना
कुछ बाबू को तम्बाकू के
कुछ बनिए का पिछला दे देना
माँ की तिथि भी तो करनी है
मंदिर में सीधा दे आना
अपनी तबियत का ध्यान रहे
मत बहुत सबेरे उठा करो
खाद डालनी होगी शायद
अब तो निचली क्यारी में
हाथ तंग है ले-लेना तुम
कुछ सामान उधारी में
अगले फागुन आऊंगा मैं
देखो कोई फिक्र न करना...
अरे , कहाँ मैं अटक गया
देखो कैसा भटक गया
जाना है, अब जाना मुझको
दूर आम के बागीचों में
आसन मारे जमे अल्हैते
थाप-थाप धम ढिम्म-ढिम्म
सब ताक रहे नभ सूनी आँखों .
रामलाल की लहुरी बेटी
टिकी बांस से मडवे के
सर पियरी से ढंके हुए
मन में दुहराती है कजरी
फिर बीच-बीच में आंख उठाकर
देख लिया करती है ऊपर---
जाने झूला पड़े- ना पड़े !
तुम कहते हो रुक जाऊं मैं
जीवन-धन का जोड़ करूँ !
तिल-तिल जलकर पा न सकूँगा
जीवन में ऊँचा मुकाम !
रुक जाऊँगा, तुम कहते हो
तो मैं निश्चित रुक जाऊँगा
यदि तुम मिटा सको दुनिया से
अश्रु-निराशा-दुःख-वेदना,
यदि तुम बदल सको हर्फों को
परदेशी के पत्रों के,
यदि तुम झूले डाल सको हर
रामलाल की बेटी खातिर,
यदि तुम बदल सको स्वर भीगे
ढोलों और अल्हैतों के !
रुक जाऊंगा, तुम कहते हो
तो मैं निश्चित रुक जाऊंगा
हाँ, मैं निश्चित रुक जाऊंगा
जब भी वह दिन आ जाएगा
जाने वह दिन कब आएगा !
अभी जरा जल्दी में हूँ मैं
अभी मित्र मैं चलता हूँ.
मत रोको कवि, मत रोको उसे।
ReplyDeleteपूरी वर्षा ऋतु और जनजीवन उतर आया कविता में -
ReplyDeleteसाथे ही वह आपका स्थायी भाव भी संवेदित हो आया जो दरअसल समष्टि का भाव है -
विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना