Tuesday, November 16, 2010

UPSC 1998 : असफलता का गीत

रह गया है हाथ खाली अब चलो घर को चलें
कह रहा है मन सवाली अब चलो घर को चलें
        थक गयी पांवों की हिम्मत
        खो गयी मंजिल की हसरत
        ज़िन्दगी कल थी रवानी
        आज केवल एक आदत
ज़िन्दगी से जीतने की हमने खायी थी कसम
हर कसम है तोड़ डाली अब चलो घर को चलें
         हर गली सपना बिखेरा
         बो दिया हर सू सवेरा
         क्या पाता था लक्ष्य ऐसे
         छोड़ देगा साथ मेरा
किसकी-किसकी आस की हों अर्थियां जाने सजीं
और अपनी काँध खाली अब चलो घर को चलें.

5 comments:

  1. रजनी कांत जी असफलता का दर्द समझ सकता हूँ... लेकिन बस यही क्या अंतिम लक्ष्य था जो छूट गया तो बस जीवन व्यर्थ गया.मंगलमय विभु अनेक अमंगल में कितने मंगल छिपाये रहता है किसे पता होता है... यह आपका नितांत व्यक्तिगत अनुभव है, इसलिए इसपर कुछ नहीं कह सकता.

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  2. चाँद नहीं बन पाये तो क्या गम है?
    आसमाँ में सितारों की हैसियत क्या कम है?

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  3. हमको तो साहब बहुत सूकून मिलता है घर लौटने पर, जैसे लौट के बुद्धू घर को आए. हम तो निदा फाजली साहब का नज़रिया ज्यादा भाता है :
    अपने ग़म को ले कर कहीं और क्यों जाया जाए,
    अपनी ही घर की चीज़ों को सँवारा जाए ;)
    आपकी और कविताई भी पढ़ी है, वो तो खासी आशावादी है, तो इसे हम अपवाद ही मानेंगे, निराशा की ही तरह, जो कुछ समय के लिए ही होती है, और अपनी जगह बिलकुल ठीक है, ठीक आपकी रचना की तरह ;)
    लिखते रहिये ....

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  4. चाहे जिसके मन की पीर हो, समझ सकता हूँ।
    'नरक के रस्ते' कविता की यह कड़ी याद आई है। पढ़ियेगा:
    http://kavita-vihangam.blogspot.com/2009/11/3.html
    टीन एज में ही रची गई एक कविता की यह पंक्ति भी याद आई:
    ..जहाँ निराशा के ठग पक्षी, लेते रैन बसेरा।

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  5. नहीं भाई न तो मंजिल वह है और न घर ही यह है ....आप अपनी मंजिल की ओर ही हैं और वही गंतव्य भी है ..हम इसे देख समझ रहे हैं -बहुत शुभकामनाएं !

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