Wednesday, November 24, 2010

उपलब्धि

मैं समय के अनंत पथ पर
पड़ा हुआ था
अड़ा हुआ था
अपार दिक का एक कोना छेंककर.
आंधियां मैंने सहीं
दम कोटि तूफानों ने तोड़े
वज्र छाती पर मेरी
मेघ रीते कोटि मुझपर
घाम में जलता रहा मैं
चन्द्रमा की रजत किरणों ने
सुलाया औ जगाया
क्षण रहा मैं युग हुआ फिर
युग बदलते कई दिखे,
मैं नहीं कहता--
नहीं मैं टूटता-जुड़ता रहा,
पर आज तूने , आज मुझ पर
हथोडियों से चोट मारी
छेनियों से छील डाला
तोड़ डाला रूप मेरा
गढ़ दिया है आज मुझको
प्रेमिका की मूर्ति में
पा नहीं जिसको सका तू
कोशिशें कर उम्र भर.

देखते हैं आँख भर सब
स्वर प्रशंसा में डुबोते--
'कल्पना साकार है'
'यह कालजेता कृति अनोखी'
'कला का अद्भुत नमूना'
'गीत प्रस्तर  में लिखा'
'न भूतो न भविष्यति'
--गर्व से माथा ताना
अनुभूति प्रखर अहम् की !
पर कलाकार ! यह सौन्दर्य साकार
यह प्रतिभा का चमत्कार
सब तेरा है ?
मात्र तेरा ही ?
तूने मुझको देख लिया, पहचान लिया
आकार दिया, साकार किया
क्या मात्र इसी से सब कुछ तू ?
और युगों से तिल-तिल जलकर
बरखा-गर्मी-सर्दी सहकर
तूफानों की ठोकर खाकर
बचा रहा मैं रहा सहेजे
सपने अपने मन के
अपनी सब संभावनाएं
क्या इनका कुछ मोल नहीं ?

पर कलाकार ! तू क्या समझेगा !
तेरे कानों को भाती है
वाह-वाह की भाषा
तेरी आँखों में तिरती है केवल एक अभिलाषा--
उपलब्धि !

तेरा मैं मुझको ले डूबा
युग-युग का तप नष्ट हुआ
मैं आज तुझे उपलब्ध हुआ.



7 comments:

  1. इस मैं ने बहुतों को डुबो दिया......

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  2. अद्भुत! अद्भुत!!

    नहीं रे उपलब्धि की नहीं चाह मुझे
    प्रेमतापस हूँ, भटकता रहा युगों से
    उसे ढूँढ़ता जो मेरे जैसा हो और
    जिससे मैं अपनी बात कह सकूँ।
    तुम्हें देखा तो लगा जैसे सब पाया
    चोट छील नहीं, वे सिर्फ मेरी बाते हैं
    जो मैंने की हैं - तुमसे जो अपने लगे।
    तुम गढ़ा गए,उकेरा गए उन बातों से
    तो ज़रा पूछो अपने प्रस्तर अंत: से
    प्रेमिका जो अब सामने आई है
    क्या वही नहीं जिसे तुमने चाहा था?
    जिसे सँजोए रखा इतने दिनों से
    आंधियां सहते
    तूफान तोड़ते
    मेघ रीते
    घाम जलते
    चन्द्र रमते -
    तुम्हारा तप सफल हुआ
    जैसे मुझ तापस का।
    जन्मों के पुण्यकर्म फलते हैं
    तब दिखता है ऐसा कुछ
    तब मिलते हैं दीवाने दो
    उत्सव मनाओ -
    तप नष्ट नहीं, यह सिद्धि है
    हमारी उपलब्धि है।

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  3. मूर्तिकार तो गढ़ता है सिर्फ मूर्तियां
    नहीं कर पाता प्राण-प्रतिष्ठा
    तूने दिया आराम
    कवि द्वय को
    मेरा प्रणाम।

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  4. रजनीकांत जी! गिरिजेश जी के कह देने के उपरांत मेरा कुछ भी कहना शब्दों का अपव्यय होगा! किंतु यदि एक शब्द में कुछ कह पाया तो बस यही कहूँगा कि अ द् भु त!!

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  5. आपकी कवितायें पढ़ते हुए लगता है शब्द मानों कानो का सामीप्य ले रुनझुन सा बोल रहे हैं ....कविता खत्म होते ही नहें घुघरुओं की रुनझुन भी बंद हो जाती है !

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  6. यह कविता जब आपने पोस्ट की थी तभी मैने इस पर प्रतिक्रिया देने की कोशिश की थी लेकिन दे नहीं पाया था.
    बाद में इस कविता पर गिरिजेश जी का कमेन्ट देख कर मुझे अपना पहला वाला कमेन्ट पोस्ट करना ठीक नहीं लगा और लगा की मुझे कविता फिर से पढनी चाहिये .
    तो फिर से पढ़ी. लेकिन गिरिजेश जी की व्याख्या पकड़ नहीं पाया.
    हो सकता है एकाक बार और पढ़ूं तब समझ आये.तब तक यह मेरा पहला वाला कमेन्ट ------
    रचते समय हम जो अनुभव करते हैं व रचना के प्रकाशित होने पर जो प्रशंसा मिलती है उससे जो अनुभूति होती है उन दोनों से हमारा जुड़ाव कितना अलग अलग प्रकार का है ! शायद यही कहना चाहते हैं आप ! हमारे भीतर जो रचता है उसे शायद प्रशंसा या आलोचना से वास्तव में कोई मतलब नहीं होता …….और हमारे भीतर जो प्रशंसा इत्यादि को ग्रहण कर उस पर प्रतिक्रियाशील होता है उसे शायद रचना से या रचना प्रक्रिया से कोई मतलब नहीं होता !

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