Sunday, September 26, 2010

एक चिड़िया की कहानी

चिड़िया ने बनाया घोंसला
चुन-चुनकर तिनका-तिनका
रेशे, डोरे, चमकीली कत्तरें
चोंच-चोंच भर बुने सपने.

मौसम बदला
गंभीर हो गयी चिड़िया
आँखों की बढ़ गयी चमक
अब देर तलक बाहर-बाहर
कर दिया बन्द रहना चिड़िया ने .
पहले अंडे , फिर अण्डों से बच्चे
चूं-चूं चें-चें , लाल-गुलाबी 
उड़-उडकर बाहर जाती
चोंच-चोंच भर लाती चिड़िया
जो कुछ भी ला पाती थी.

बच्चे होने लगे बड़े
खड़े पांव पर होते-होते  
कौतूहल-सी चंचल ऑंखें 
धीरे-धीरे पांखें आयीं
इधर फुदकना ,उधर फुदकना
किन्तु घोंसले की सीमा में.
चिड़िया मन में हर्षित होती
देख फुदकना सपनों का.
खुलती पांखें, मुंदती पांखें
मुडती और सिकुड़ती पांखें
पांखों ने मजबूती पाई
ले बच्चों को दूर गयीं
दूर क्षितिज से भी आगे
पार दृष्टि की सीमाओं के .

चिड़िया अब भी चुप-चुप- अक्सर
बैठी रहती देर-देर तक
सूनी आँखों तकती रहती
राह जिधर से गए थे बच्चे
चिड़िया तब लगती है मुझको
बिलकुल मेरी  माँ के जैसी.



5 comments:

  1. पक्षी इस मामले में इंसान से ज्यादा परिपक्व हैं। हमारी तरह वे ऐसी अपेक्षायें भी तो नहीं पालते कि हमारे बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।
    अपेक्षा मतलब संभावित दुख।
    हमेशा की तरह सोचने को विवश करती है आपकी रचना।

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  2. बहुत अच्छी रचना ......

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  3. अच्छी अभिव्यक्ति .
    परिंदे तो बस अपने बच्चों को उड़ना भर सिखा देते हैं

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  4. परिंदे ही अच्छे ...
    बच्चों को उड़ना सिखाया और मुक्त हुए ...
    मगर क्या उनकी आँखों में भी अपने बच्चों का इंतज़ार होता है ...!

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  5. सचमुच यह चिडिया माँ जैसी ही है ।

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