Wednesday, April 13, 2011

पाखी वाला गीत

पाखी वाला गीत अकेले जब-जब गाया
आकुल मन की विह्वलता में तुमको पाया

 नाव किनारे से ज्यों छूटी 
टूटी नींद नदी के जल की 
हलकी-हलकी लाल किरण का 
आँचल ओढ़े संध्या ढलकी 
बनती-मिटती लहरें मन की प्रतिच्छाया  .

बूढ़ा सूरज चलकर दिनभर 
किरणों की गठरी कंधे पर
धीरे-धीरे पार क्षितिज के 
लौट रहा थककर अपने घर 
सुबह का भूला भटका, शाम हुई  घर आया .  

Monday, April 11, 2011

अब न आदत रही....

अब न आदत रही गुनगुनाने की वह
मुझसे लिखने का सारा हुनर ले गयी 
कल झुका कर नज़र रो पड़ी  और फिर
मेरे सपनों की पूरी उमर ले गयी  

     उसने वादे किये मुझसे झूठे अगर 
     उसकी अपनी रही होंगी मजबूरियां 
     कौन चाहेगा ऐसे भला उम्र भर 
     ढोते रहना कसक टीस बेचैनियाँ

वह बुरी  तो नहीं थी  मगर भूल से
एक मासूम पंछी के पर ले गयी 

     हर कोई चाहता है सुखी ज़िन्दगी 
     चाह उसने भी की कुछ गलत तो नहीं
     बात चुनने की थी सो चुना बुद्धि से  
     प्यार बदले ख़ुशी कुछ गलत तो नहीं

और भी थे चयन के लिए रास्ते
किन्तु बेचैनियों का सफ़र ले गयी 

     कसके मुट्ठी में बाँधी हुई रौशनी 
     राह रोशन करे यह जरूरी नहीं
     देश का था ये विस्तार जो नप गया
     पाँव नापे जिसे मन की दूरी नहीं 

टिमटिमाते दियों की मधुर आस पर
वह अँधेरे सभी अपने घर ले गयी .

Saturday, March 26, 2011

साम्राज्यवाद बदनाम शब्द है

तुमने तय किया --
कृण्वन्तो विश्वमार्यम 
और चल दिए थामे  वल्गाएँ
श्वेत, सुपुष्ट अश्वों की
घाटियों-शिखरों-दर्रों के पार
ढूँढने मानव-बस्तियां
बनाने को उन्हें श्रेष्ठ !

अथाह जल-भरी सदानीराएं
मैदान अकूत अन्न-धन से भरे
नहीं थे , नहीं ही थे दृष्टि में तुम्हारी
बर्बर, लोलुप आक्रांताओ !
मान लेने को जी करता है
जोर पर तलवार के नहीं
सदाशयता से तुम्हारी
फैली करुणा और ज्ञान की रोशनी
अंधकूप में पडी असभ्यताओं तक !

बरसों-दशकों-सहस्राब्दियों...
जारी है अनवरत खेल
तुम तय करते हो
मुक्त करना है किसे और कितना 
कब और कैसे भी तुम्हीं   तय करते हो.

धरती की कोख से खोदने के बाद काला सोना 
खदानें  भर दे जाती हैं रेत से
तुम निचोड़कर हमारी स्थानीयता
खालीपन को पूरते हो अपने जैसा-पन से

इस हद तक जुनून है
दुनिया को सभ्य करते जाने का 
लोकतंत्र पहुंचाते हो तुम मिसाइलों पर लादकर 

बर्दाश्त  कर  पाना  कठिन  है
अपने से अलग भी  कुछ  है जो विशिष्ट  है
 जो अपने से अलग है   असभ्य है
जो अपने से अलग है  निर्दयी है
जो अपने से अलग है  कूढ़मगज है 
जो अपने से अलग है   आततायी है
जो अपने से अलग है   अंधकार में है

कृण्वन्तो विश्वमार्यम 
साम्राज्यवाद बदनाम शब्द है.


Wednesday, March 23, 2011

आम की खामोशी

मन ख़ास का होता है
तुम आम ठहरे
ऐसा कैसे कर सकते हो 
बौराए नहीं इस बार !
इस बार फूले नहीं फलने की उम्मीद में !

ऐसा भी कहीं होता है 
कि मन नहीं हुआ तुम्हारा 
और तुम नहीं फूटे बौर बनकर 

बौर का फूटना मन की मौज भर नहीं है 
किसी उम्मीद के लिए जीने का सबूत है
मोर्चा है खतरनाक बासंती चुप्पियों के खिलाफ 

आम तुम्हारी ख़ामोशी उतनी आम नहीं 
राडिया-कलमाडियों के नाजायज़ समय में.


Thursday, March 17, 2011

मन मछेरा

फेंकता है जाल
बटोर लाता है तुम्हारी यादें
मन मछेरा रोज़ रात
रोज़ रात जागती है आँख 
आँख में जागते हैं दिन तुम्हारे प्यार के.

भीगती है ओस 
रात कसमसाती है
बात कुछ होती नहीं है
उनींदी चादरों की सलवटें
कुछ अचकचायी देखती हैं
देखती हैं धर गया है कौन
बीते दिन तुम्हारे प्यार के.

मन मछेरे 
कल सवेरे
फूटती होगी किरण उम्मीद की जब
ओस को करके विदा चुपचाप
दिन चढ़ने लगेगा
हम चलेंगे दूर सागर में 
हवा के पाल पर
ढूँढने अपने पुराने दिन किसी के प्यार के.


Monday, March 14, 2011

ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है

ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है
आप सोचते हैं जितनी
स्कूल गए बच्चे लौट आते हैं घर, अधिकतर
रोटियां रखती हैं टिफिन में पत्नियां अब भी
अब भी छोले की ठेली लगती है आफिस के बाहर
पगार का इंतज़ार वैसा ही है
वैसा ही झुकता है सिर सांझ को बत्ती जलाकर

उदास मौसम में भी खिलते हैं कुछ फूल
धूल के पार रोशनी का यकीन बाकी है अभी
बाकी है अभी मधुमक्खियों के छत्तों में शहद
उन्हें तोड़ने का हौसला भी
चोट लगने पर निकलती है अभी चीख
जीभ अब भी काम आती है बोलने के

लोकतंत्र लाठी पर जूते-सा टंगा ज़रूर है
पर हुज़ूर के पांवों में शुगरजनित गैंग्रीन  है
और लाठियों में टूटने का डर
तहरीर चौक इसी दुनिया की चीज है
ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है
जितनी सोचते हैं आप.

Friday, February 25, 2011

सो जा री सो जा राजदुलारी !

चाँद का खिलौना है सांझ की अटारी
खेलेगी झूम-झूम बिटिया हमारी
सो जा री सो जा राजदुलारी

नींद दूर रहती है परियों के देश
जा ले जा पुरवा री जल्दी सन्देश
देर करे काहे तू जल्दी से जा री
बिटिया की अंखियों में नींद की खुमारी
सो जा री सो जा राजदुलारी

चांदी-सी चांदनी फूल-सा बिछोना
मोती-सी अंखियों में सोने-सा सपना
आयेगी निंदिया चढ़ गीत की सवारी
बिटिया की अंखियों में नींद की खुमारी
सो जा री सो जा राजदुलारी

नाना की सोनजुही नानी की मैना
दादी के नयनों की दिन और रैना
बाबा की गीत ग़ज़ल छंद कविता री
बिटिया की अंखियों में नींद की खुमारी
सो जा री सो जा राजदुलारी .

Sunday, February 20, 2011

ज़िन्दगी

वक़्त की आँधियों में पली ज़िन्दगी
राह  काँटों की हरदम चली ज़िन्दगी
स्वप्न देखे अमरता के लाखों मगर
धूप के साथ हर दिन ढली ज़िन्दगी

     आँख आंसू भरी होंठ हँसते रहे
     उम्र बढती रही पाश कसते रहे
     एक एहसास ख़ाली हथेली का और
     दौड़ में हासिलों के हम फंसते रहे

हर घड़ी एक मुखौटा लगाये रही
नाटकों की तरह हो चली ज़िन्दगी

     एक सुहानी सुबह की सुखद आस ले
     धुंधली राहों का धुंधला-सा एहसास ले
    रोज़ बढ़ते रहे हम कदम-दर-कदम
    और बढ़ते रहे हर कदम फासले

राह मंजिल हुई साथ चलती रही
और क्षितिज ने हमेशा छली ज़िन्दगी

     एक नदी की रवानी कदम में लिए
     उम्र भर हम किनारों के जैसे जिए
     लाख चाहा कि लहरों को बांधें मगर
     एक छुवन को भी ताउम्र तरसा किये

बांधते छोड़ते कट गयी यह  उमर
और कितना जिए मनचली ज़िन्दगी.





Thursday, February 10, 2011

...अचीन्हे नयन

तुम न देखो मुझे यूँ  अचीन्हे नयन
मैं स्वयं के लिए शाप हो जाऊँगा
मैं तुम्हारे लिए पुण्य करता रहा
आज टूटा अगर, पाप हो जाऊँगा

     नाम जिसको कभी कोई दे न सका
     नेह से भी बड़ा एक नाता रहा
     बंध तोड़े सभी मैंने अनुबंध के
     और प्रतारण नमित-शीश पाता रहा

मौन मन की न खोलीं अगर गुत्थियाँ
पीर के मन्त्र का जाप हो जाऊँगा

     अब भी बाकी बहुत कुछ रहा अविजित
     मेरे जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष में
     देह के दायरे टूट पाए नहीं
     सारे उत्कर्ष में सारे अपकर्ष में

तुमसे कहकर हृदय की समूची व्यथा
आज मैं रिक्त-संताप हो जाऊँगा.

Sunday, February 6, 2011

कुछ और दोहे

बेटी की डोली उठी  सूना आंगन-द्वार
पीपल रोया रो पड़ा  बूढ़ा हरसिंगार .

दोपहरी थी कर रही  पनघट पर विश्राम
आँचल पर तब लिख गया फागुन अपना नाम.

तन मेरा फागुन हुआ  मन मेरा आषाढ़
बंधन टूटे देह के  ऐसी आई बाढ़ .

संध्या बैठी घाट पर  थककर श्रम से चूर
नटखट सूरज मांग में  भरने लगा सिँदूर .

पनघट से कल कह गयी  पायल मन की बात-
ख़त आया परदेश से  जागी सारी रात.

इन्सां कैसे मर सके  ढूंढ  रहे तरकीब
कंकरीट से त्रस्त है  मिट्टी की तहजीब .