पाखी वाला गीत अकेले जब-जब गाया
आकुल मन की विह्वलता में तुमको पाया
नाव किनारे से ज्यों छूटी
टूटी नींद नदी के जल की
हलकी-हलकी लाल किरण का
आँचल ओढ़े संध्या ढलकी
बनती-मिटती लहरें मन की प्रतिच्छाया .
बूढ़ा सूरज चलकर दिनभर
किरणों की गठरी कंधे पर
धीरे-धीरे पार क्षितिज के
लौट रहा थककर अपने घर
सुबह का भूला भटका, शाम हुई घर आया .