Sunday, February 20, 2011

ज़िन्दगी

वक़्त की आँधियों में पली ज़िन्दगी
राह  काँटों की हरदम चली ज़िन्दगी
स्वप्न देखे अमरता के लाखों मगर
धूप के साथ हर दिन ढली ज़िन्दगी

     आँख आंसू भरी होंठ हँसते रहे
     उम्र बढती रही पाश कसते रहे
     एक एहसास ख़ाली हथेली का और
     दौड़ में हासिलों के हम फंसते रहे

हर घड़ी एक मुखौटा लगाये रही
नाटकों की तरह हो चली ज़िन्दगी

     एक सुहानी सुबह की सुखद आस ले
     धुंधली राहों का धुंधला-सा एहसास ले
    रोज़ बढ़ते रहे हम कदम-दर-कदम
    और बढ़ते रहे हर कदम फासले

राह मंजिल हुई साथ चलती रही
और क्षितिज ने हमेशा छली ज़िन्दगी

     एक नदी की रवानी कदम में लिए
     उम्र भर हम किनारों के जैसे जिए
     लाख चाहा कि लहरों को बांधें मगर
     एक छुवन को भी ताउम्र तरसा किये

बांधते छोड़ते कट गयी यह  उमर
और कितना जिए मनचली ज़िन्दगी.





2 comments:

  1. याद नहीं किसने कहा था कि ये ज़िंदगी साली बड़ी कुत्ती चीज़ है! माफ़ी चाहूँगा इस बात के लिये.
    रजनी कांत जी! आज आपने पैदा होने और मर जाने के दर्मियान की ज़िंदगी के जो सच बयान किये हैं, वो आपकी संजीदगी का सबूत हैं!! जीते रहिये!!

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  2. आज ही पढ़ा एक शेर,
    "हर नफास उम्रे-गुजश्ता की है मय्यत 'फ़ानी'
    जिन्दगी नाम है मर-मरके जिए जाने का"

    और second thought में याद आता है वो शायर फ़िल्म नमक हलाल से,
    "जीने की आरजू में रोज मर रहे हैं लोग,
    मरने की जुस्तज़ू में जिये जा रहा हूं मैं"

    प्रोफ़ेसर साहब, यही है कहानी जिन्दगी की, जो बयान की है आपने।

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