Monday, March 14, 2011

ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है

ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है
आप सोचते हैं जितनी
स्कूल गए बच्चे लौट आते हैं घर, अधिकतर
रोटियां रखती हैं टिफिन में पत्नियां अब भी
अब भी छोले की ठेली लगती है आफिस के बाहर
पगार का इंतज़ार वैसा ही है
वैसा ही झुकता है सिर सांझ को बत्ती जलाकर

उदास मौसम में भी खिलते हैं कुछ फूल
धूल के पार रोशनी का यकीन बाकी है अभी
बाकी है अभी मधुमक्खियों के छत्तों में शहद
उन्हें तोड़ने का हौसला भी
चोट लगने पर निकलती है अभी चीख
जीभ अब भी काम आती है बोलने के

लोकतंत्र लाठी पर जूते-सा टंगा ज़रूर है
पर हुज़ूर के पांवों में शुगरजनित गैंग्रीन  है
और लाठियों में टूटने का डर
तहरीर चौक इसी दुनिया की चीज है
ये दुनिया उतनी ख़राब भी नहीं हुई है
जितनी सोचते हैं आप.

5 comments:

  1. बराबर लिखा प्रोफ़ैसर साहब। गिलास आधा भरा है।

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  2. यानि कि खराब करने वालों के लिये अभी गुँजाईश है!

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  3. निरी गर्द में... यकीन... ही है
    जो धूल पार भी चमक रहा है

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  4. बहुत प्यारी उम्मीद है!!उम्मीद करें कि दुनिया उतनी ख़राब भले न हुई हो, जितनी हुई है वो भी सुधर जाए! आमीन!!!

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  5. अच्छा बचे रहने और होने की उम्मीद बनी रहे ...!

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