Thursday, February 10, 2011

...अचीन्हे नयन

तुम न देखो मुझे यूँ  अचीन्हे नयन
मैं स्वयं के लिए शाप हो जाऊँगा
मैं तुम्हारे लिए पुण्य करता रहा
आज टूटा अगर, पाप हो जाऊँगा

     नाम जिसको कभी कोई दे न सका
     नेह से भी बड़ा एक नाता रहा
     बंध तोड़े सभी मैंने अनुबंध के
     और प्रतारण नमित-शीश पाता रहा

मौन मन की न खोलीं अगर गुत्थियाँ
पीर के मन्त्र का जाप हो जाऊँगा

     अब भी बाकी बहुत कुछ रहा अविजित
     मेरे जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष में
     देह के दायरे टूट पाए नहीं
     सारे उत्कर्ष में सारे अपकर्ष में

तुमसे कहकर हृदय की समूची व्यथा
आज मैं रिक्त-संताप हो जाऊँगा.

Sunday, February 6, 2011

कुछ और दोहे

बेटी की डोली उठी  सूना आंगन-द्वार
पीपल रोया रो पड़ा  बूढ़ा हरसिंगार .

दोपहरी थी कर रही  पनघट पर विश्राम
आँचल पर तब लिख गया फागुन अपना नाम.

तन मेरा फागुन हुआ  मन मेरा आषाढ़
बंधन टूटे देह के  ऐसी आई बाढ़ .

संध्या बैठी घाट पर  थककर श्रम से चूर
नटखट सूरज मांग में  भरने लगा सिँदूर .

पनघट से कल कह गयी  पायल मन की बात-
ख़त आया परदेश से  जागी सारी रात.

इन्सां कैसे मर सके  ढूंढ  रहे तरकीब
कंकरीट से त्रस्त है  मिट्टी की तहजीब .

Monday, January 31, 2011

दिन निकला

लो !
फिर छू दिया
सूरज की पहली किरण ने
धरती के आँचल का छोर
पोर-पोर भीग उठा
बूंदों से अर्घ्य के
अर्घ्य, जो बटोरती है अंजुरियों में
कालिमा के ओर से लालिमा तलक
बीनती संवारती है बांटती है रात
चुन-चुनकर रखती है दूब की हथेलियों पर.
उचकेगी पंजों पर थोड़ी सी धूप
धीरे से छू देगी मंदिर की घंटियाँ
बरोहों से बरगद के सरकेगा दिन
और फैलेगा धरती के आँचल पर जी भर .

Tuesday, January 18, 2011

घर...

घर... कि दीवार से आगे भी बहुत कुछ है...
घर... कि आकार से आगे भी बहुत कुछ है...

     जिसके आँगन में हंसी बनके उतरती है किरन
     जिसकी सांकल के खटकने पे संवर जाते हैं मन
घर...कि उपहार से आगे भी बहुत कुछ है...

     जिसका  हर कण है किसी गीत का पावन स्वर
     'मैं' से आगे 'तुम' से पहले बीच में है घर
घर... कि अधिकार से आगे भी बहुत कुछ है

     घर की सांसों में सभी सबकी आँखों में है घर
     एक मंजिल जहाँ ठहरा थक के हर एक सफ़र
घर...कि व्यापार से आगे भी बहुत कुछ है...

घर... कि दीवार से आगे भी बहुत कुछ है...
घर... कि आकार से आगे भी बहुत कुछ है...

Saturday, January 15, 2011

कैसे कह दूँ , मीत !

कैसे कह दूँ , मीत ! मुझे अब तुमसे प्यार नहीं है

जिन अधरों पर मेरी बातें
जिस जिह्वा पर मेरा नाम
जिन पलकों में सुबहें मेरी
जिन केशों में मेरी शाम
जिस पर था कल , आज कहीं मेरा अधिकार नहीं है

संग-संग चलना मौन सड़क पर
आँखों से कह देनी बात
अपने सारे साझे सपने
जो देखे थे हमने साथ
अब भी हैं मौजूद कहीं पर वह आकार नहीं है

टुकड़ा-टुकड़ा जी लेने को
कैसे दूं जीवन का नाम
खींच रही है नियति नटी हर
पल-छीन डोरी आठों याम
टिका सके जो चार चरण कोई आधार नहीं है.

Tuesday, January 4, 2011

गुनाह की कविता

देह की वेदिका पर हवन हो गयीं
प्रेम के वेद की संहिताएं सभी
वासना के पुरोहित ने ऐसे पढ़ीं
स्नेह-सम्बन्ध की शुभ ऋचाएं सभी
    मूँद कर आँख सौंपा था विश्वास-धन
    अंजुरी में भरे अर्घ्य-सा मौन मन
    देहरी पर धरे दीप की भाँति लय
    कर दिए थे नयन में कुंवारे नयन
मोह आविष्ट स्वर की सजी आरती
और अपावन हुईं वर्तिकाएँ सभी
     देह की देहरी से बांधे प्रान क्यों
     केंद्र से इस परिधि के हैं अनजान क्यों
     जो युगों का है नाता तुम्हारा-मेरा
     फिर ये उथली-अधूरी-सी पहचान  क्यों
किसलिए काम ने कस लिया पाश में
और पापी हुईं कामनाएं सभी.

    

Thursday, December 30, 2010

सच यही है, झूठ इसमें कुछ नहीं है

ये मेरे अक्षत अधर तेरे लिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी
झील हैं तेरे नयन जलते दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

तू अगर गीतों में मेरे प्रेम-स्वर पहचान ले
तू अगर मेरी हंसी का लक्ष्य खुद को जान ले
अर्घ्य में एकादशी के नाम मेरा ले अगर
तू हृदय के बंध का सम्बन्ध यूँ ही मान ले
दोष तेरा ही है इसमें सुन , शुभे

पल कोई मैंने  तेरी खातिर जिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

सांझ की पिछली किरण से नेह था, मैं मानता
साड़ियाँ छत पर सुखाती  थी तुझे मैं जानता
बस यूँ ही दो-इक  दफा हिलते अधर खिलते नयन
दिख गए होंगे कभी इतना ही मैं पहचानता
हर किसी पहचान को अब प्रेम तो कहते नहीं

प्रात मैंने रात जग अनगिन किये हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी

एक  कोई लेके मुझको जी रहा है सांस में
एक  कोई नाम मेरी उम्र भर की प्यास में
दिन गए कई साल बीते जब शरद की एक सुबह
लिख उठा था नाम कोई और मेरे पास में
सच यही है , झूठ इसमें कुछ नहीं है

पुण्य सब संकल्प तुझको कर दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी.


Thursday, December 23, 2010

दो कदम तेरी तरफ मैं फिर चलूँ


प्रिय आज मैंने फिर जलाया सांध्य-दीपक
आज मेरा मन हुआ है फिर जलूं
अधिकार सब निःशेष तुझ पर हो चुके पर
चाहता हूँ एक दफा मन फिर छलूं

     फागुनी वाताश  में बिखरी हुई मधुगंध जैसे
     याद बनकर बस गयी है मौन मन के पोर में
     बीतते पतझड़ में डाली से विलग पत्ते सरीखा
     चाहता  तन बंध के  रहना पीत आँचल-कोर में

गो पाँव मेरे थक चुके पर शेष चाहत
दो कदम तेरी तरफ मैं फिर चलूँ

     रूप की आराधना की साध पूरी हो चुकी पर
     स्नेह के सम्बन्ध बंधने की ललक बाकी रही
     देवता भी, दीप भी हैं देव-मंदिर-गर्भगृह में
     अंजुरी-जल अर्घ्य कर दे किन्तु वह श्रद्धा नहीं है

भेंट दूं सर्वस्व दीपक की सदाशयता को मैं
और घुप अंधियारे सरीखा फिर गलूं .

Friday, December 17, 2010

अकेले में कुछ यूँ ही....

एक मधुगंध बींध जाती है पोर-पोर
भोर की उजास भर कसकता है मन
कानों में जब घोल जाती है मधुर ध्वनि
पायल की एक कोई अल्हड छनन
     यादों की तनी-तनी चादर पर सलवट-सी
     छोड़ चली जाती है अक्सर पुरवाई
     दबी-छिपी बातों को खोल-खोल देती है
     ऊबी-ऊबी थकी-थकी बोझिल तन्हाई
कुशा के कटीले वन चुभते हैं देर तलक
भीग-भीग आते हैं पागल नयन
     पेड़ों से पत्तों के टूट-टूट जाने की
    टीस ज्यों हवाओं में, ऐसी चुभन
    राहों में धूल भरे पांवों की कदमताल
    मंजिल को पाने के झूठे जतन
निशा के अँधेरे में खिलते हैं झूठ-मूठ
आस के नशीले और छलना सुमन
    समय छोड़ जाता है चिह्न कई हर ओर
    और आंक जाता है अपने चरण
    रीत-रीत जाती है चाम की मशक किन्तु
    बार-बार पानी का करती वरण
खंड-खंड जीवन का योग है सिफ़र और
गिने-चुने उपलब्ध केवल चयन.

Monday, December 13, 2010

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं
यह ज़मीन की आकाश छूने  की ज़द्दोजहद भी नहीं
किसी अहंकार का निर्लज्ज वैभव-प्रदर्शन भी नहीं
यह नहीं है हवा की किसी ऊपरी परत में सांस लेने की कोशिश
या फिर धरती की गलीज़ बजबजाहट से दूर होने का ख्याल .

ऐसा मानना निहायत गलत होगा --
यह दलाल-पथ के हुनर का नमूना है
या हमारी जेब से रिसती दुअन्नी का नतीजा है
न यह काल के गाल पर पड़ा डिम्पल है
और न ही मजाक है दौलत के सहारे किसी मोहब्बत का

एन्तिला फकत एक इमारत का नाम नहीं
मेरे मित्र , यह 'धूमिल' के आधी सदी पुराने प्रश्न का ''कौन''  है
आपको क्या लगता है , मेरे देश की संसद यों ही मौन है !!