Monday, May 9, 2011

ताल वहीँ से ठोंकी जानी है

ये दुनिया है बाबा
दो दिन का मेला है
सब पेट का खेला है

मदारी है, जमूरा है, बन्दर है
मदारी का खेल है
और खेल मदारी के अन्दर है
या फिर
मदारी खेल के अन्दर है

डुगडुगी बजाता है
हाथ हिलाता है
हवा में पैसा बनाता है
आता-जाता आदमी रुक जाता है
बहुत बार देखा खेल भी 
नया नज़र आता है.

नज़रबंदी का तमाशा है
जो है वह दीखता नहीं
जो दीखता है वह है नहीं
यह बात मदारी जानता है
जमूरा भी जानता है
नहीं जानता है तो बस बन्दर.

छोड़िए, कविता का क्या है
जैसी  भी हो, हो जाएगी
पर एक बात नयी-नयी-सी हुई है
बन्दर पूछ रहा है
पता जंतर-मंतर का
कहता है ताल वहीँ से ठोंकी जानी  है.

6 comments:

  1. कमाल का क्लाइमेक्स है!!जरा देर से आई ये कविता मगर क्रान्ति है!!!

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  2. मगर इस बन्दर के हाथ में उस्तरा नहीं है ...
    जंतर मंतर पर जाएगा ,लोगों को खूब भारमायेगा
    घुडकेगा तो खूब मगर किसी को काट नहीं खायेगा

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  3. अजी साहब पूछने की कोई जरूरत नहीं, मदारी पहले ही मौके की नजाकत भाँपकर उधर लपक रहे हैं, बंदर को चाहिये कि मालिक का साथ न छोड़े।

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  4. वह बन्दरों की ही सेना थी जिससे लकां जीती गयी थी ......उस्तरे की जरूरत नहीं है .....उनकी सामूहिक तादात ही काफी है .....बस उन्हें पता चलना चाहिये कि पहुंचना कहां है .....और जैसा कि स्पष्ट है कि अब उन्हें पता चल चुका है ....

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  5. कुछ यादें... कुछ बातें... कुछ अनुभव... कुछ विचार... वादों-विवादों से परे...!

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