Wednesday, May 4, 2011

धूप...

अमलताश के वृक्षों से छन धरती पर छितराई धूप
जाने किसके पग की पायल किसकी है शहनाई धूप

अगली-पिछली सारी बातें अपने सारे सुख और दुःख
कह लो सब कहनी-अनकहनी सबकी सुनने आई धूप

रस्ते-रस्ते आंसू बोया विपदाओं की काटी फ़स्ल
नम आँखों की भाषा पढकर चेहरों पर पथराई धूप

कितनी अच्छी  लगती है जब सो जाती है कोई रात
रात की बातें सोच-सोचकर खुद से भी शरमाई धूप

बादल के संग आँख-मिचोली सूरज से आँखों में बात
मेरे जैसा कौन यहाँ पर फिरती है इतराई धूप

सपने मेरे आँखें तेरी चल सब कुछ यूँ बांटें हम
पनघट पीपल मंदिर पोखर सबसे यूँ कह आई धूप.




6 comments:

  1. इतनी शीतल रचना पर सहसा विश्वास नहीं होता कि इसकी केंद्र में वही है जिसके विषय में पढ़ा था कि "बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा!!"

    ReplyDelete
  2. ’आओ धूप’ के बाद धूप पर आधारित यह दूसरी रचना है जिसने मजा बांध दिया है, वो भी मई के महीने में।
    प्रोफ़ैसर साहब, मजा आ गया।

    ReplyDelete
  3. तपती लू में शीतल धूप की कविता ...
    बढ़िया !

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर, बहुत ही सुन्दर।

    ReplyDelete
  5. हे भाई ई कविता हम जाड़े में फिर पढ़ेगें !

    ReplyDelete
  6. धूप का यह स्त्रीकरण !!!सुखद विस्मय !
    धूप अपने अलग अलग रूपों मे हमेशा आकर्षित करती है ...अन्तिम पंक्ति की लय बहुत सुन्दर लगी !

    ReplyDelete