Wednesday, March 23, 2011

आम की खामोशी

मन ख़ास का होता है
तुम आम ठहरे
ऐसा कैसे कर सकते हो 
बौराए नहीं इस बार !
इस बार फूले नहीं फलने की उम्मीद में !

ऐसा भी कहीं होता है 
कि मन नहीं हुआ तुम्हारा 
और तुम नहीं फूटे बौर बनकर 

बौर का फूटना मन की मौज भर नहीं है 
किसी उम्मीद के लिए जीने का सबूत है
मोर्चा है खतरनाक बासंती चुप्पियों के खिलाफ 

आम तुम्हारी ख़ामोशी उतनी आम नहीं 
राडिया-कलमाडियों के नाजायज़ समय में.


4 comments:

  1. सत्य वचन रजनी बाबू!!असली राजा तो आम ही है!!

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  2. अन्त की दो पंक्तियां अचानक कविता का रुख ही बदल दे रही हैं !

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  3. चलिये ! कम से कम आपने अपनी फोटॊ तो लगायी ! बहुत जरूरत थी इसकी !

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  4. बहुत अच्छा। ......खतरनाक बासन्ती चुप्पियों के खिलाफ.....

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