Friday, April 2, 2010

अलगनी पर टंगी औरतें

जम्फर , फरिया, ब्लाउज संग
सुबह से शाम तक
अलगनी पर टंगी रहती हैं
चिमटियों से दबी
कुछ साड़ियाँ .

गरमाई हवा में फडफडाती हैं
कभी धूप में, कभी छाँव में
सूखती हैं भाप देतीं
कड़क हो जाती हैं.

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
दीखती हैं , देखी  जाती हैं
नज़र-बेनज़र
दबे-छिपे , सरेआम
साल में तीन सौ पैंसठ दिन
दस...बीस...पचास...सत्तर साल
उजाले में, अंधेरे  में
लगातार.

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
अक्सर तहाती हैं चुपचाप
दिसंबर की ठंडाई साँझ-सी
परत-दर-परत;
फिर रख दी जाती हैं
पेटी,अलमारी या बिस्तर के सिरहाने-पैताने
किसी पाजामे,गमछे या लुंगी की बगल में.

कोरेपन से पोंछा बन जाने तक
बरस-दर-बरस गलती हैं
रंग......बेरंग......बदरंग ;
मसकती हैं
इधर,उधर ,चाहे जिधर से;
हुमकती हैं, रीझती  हैं, खीझती हैं
अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
बोलती नहीं हैं खुद से
केवल सुनती हैं दूसरों की आवाज़ .

अलगनी पर टंगी साड़ियाँ
अक्सर फडफडाती हैं
पर अलगनी छोड़कर नहीं जातीं
अपने-आप
टंगी रहती हैं लगातार
दस.....बीस....पचास....सत्तर साल.

(साड़ियों की जगह औरतें पढ़ें)



4 comments:

  1. क्या प्रवाह था कविता का, वाह! संवेदनाओं क्या उकेरा है वैसे न भी लिखते तो भी चलता कि "साड़ियों की जगह औरतें पढ़ें".....।

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  2. प्रवाहशील रोचक कविता.............

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  3. कोरेपन से पोंछा बन जाने तक
    टंगी ही रहती हैं .....

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  4. सूखती है भाप देती है कड़क हो जाती है ....वाह क्या तो शब्दों की ज्वालमुखी का लावा निकला है कहने को अर्ध नरेश्वर पर क्या आधे भाग में ही जवाला मुखी का लावा निकलता है ????/और जो भाप बनजाती है उन खेतों की मानो जो गिली और शोंधि शोंधि मिटटी की सुघंत थी पर अब सुख कर दरारे नुमा हो गयी जेसे मिटटी हुआ करती है ...दर्द को स्पष्ट उकेरा है आप ने !!!!!!!!!!शुक्रिया भाई !!!!!Nirml Paneri

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